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बेशक, यह बड़ी बात है। जो काम समाज को करना चाहिए, वह सरकार कर रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पुलिस की भर्ती में पैंतीस फीसद सीट महिलाओं को देने जा रहे हैं। सहकारी संगठन और प्राथमिक कृषि साख समिति (पैक्स) की आधी सीटों पर भी महिलाएं होंगी।
मेरी राय में यह नौकरी पाने या किसी पद पर बैठने भर की बात नहीं है। वह असरदार कवायद है, जिसके चौतरफा रंग आगे के दिनों में वैसे दिखेंगे, जिसकी कल्पना भी पुरुष प्रधान समाज नहीं करता होगा। भई, मैं तो इसमें भी पुरुषों के ढेर सारे फायदे देख रहा हूं। मर्दों की पहचान का दायरा फैलने वाला है। अभी तक वे एमपी (मुखिया पति), पीपीपी (पंचायत प्रतिनिधि पति), एसपी (सरपंच पति) आदि कहलाते हैं। अब ऐसे कुछ शब्द प्रचलन में आ सकते हैं-सिपाही पति, दरोगा पति, डीएसपी पति। (माफ करेंगे, माहौल का फगुनहट दिमाग पर सवार हो रहा है)।
चलिए, यह तो मजाक की एक लाइन है। लेकिन इसमें भी पत्नी, बेटी और बहन के बूते पति, पिता व भाई के गौरवान्वित होने का बेहिचक भाव छुपा है। अपने राज्यपाल जी एक कदम आगे बढ़ गए। उन्होंने पुलिस भर्ती के आधे पदों को महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात कही है। माहौल इसी तरह बदलता है। बदल रहा है।
मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रही हैं। अहा, यह सब बस सुनते रहने में कितना अच्छा लगता रहा है कि … रात नहीं हमें सुबह चाहिये, सूरज को चीरकर आगे आ; कि महिला को बकरी से शेरनी बनना होगा, तभी हिंसक भेडिय़े गीदड़ बनकर भागेंगे; कि महिलाओं को बचाने में समाज मूकदर्शक नहीं साझेदार बने; कि जब स्त्री सृष्टिïकारिणी है तो समाज पुरुष प्रधान कैसे हुआ; कि औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा, जुल्म करने वाला सीनाजोर बनता जाएगा।
मैं नहीं जानता कि ऐसे आह्वïान, प्रश्न या उद्वेग की बातें कब से चलनी शुरू हुईं? हां, अब इनके भरपूर साकार होने की उम्मीद के बेहद करीब जरूर हूं। यह बड़ी हिम्मत की बात है। टफ टास्क है। यह (महिला सशक्तीकरण) वस्तुत: समाज की जिम्मेदारी है, सरकार निभा रही है। मैं देखता रहा हूं, हंसता भी रहा हूं। अजीब विडंबना है-मातृशक्ति/जननी को सशक्त करना है। पुरुष प्रधान व्यवस्था में उस औरत को भरपूर हक-सम्मान दिलाना है, जो मर्दों को पैदा करती हैं। मां का दूध सभी पीते हैं लेकिन उसकी लाज …?
मैंने यहां दुर्गा चीत्कार सुनी है। देखा हूं कि कैसे औरत, अपराध के हर आयाम का सहूलियत वाला जरिया बना ली गई। हर स्तर पर वही कसूरवार व सजायाफ्ता रही है। आत्महत्या करने लायक पीड़ा, देह व्यापार, अवैध संबंध के आरोप में घर से निष्कासन, बेमेल शादी, बेटा नहीं होने की कुंठा …, नरसंहार की भी सर्वाधिक प्रताडि़त महिलाएं ही हैं। राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। उन्होंने शपथ ग्रहण के दौरान कहा था कि दहेज हत्या व बलात्कार के मामले में डीएम-एसपी की जिम्मेदारी तय कर सजायाफ्ता किया जाएगा। ऐसा कोई उदाहरण है? महिला हिंसा का रिकार्ड बन गया। इससे महिला सशक्तीकरण को सार्थक मुकाम देने के तमाम रास्ते संदेह के दायरे में आए।
महिलाओं के मोर्चे पर सरकार, समाज से नहीं लड़ी। अपना समाज बड़ा अजीब है। वह प्रेम या अंतर्जातीय विवाह को अपेक्षित मान्यता नहीं देता और दहेज में दस रुपये भी नहीं छोड़ता। यहां के लोग उस मानसिकता से कुछ ज्यादा ग्रसित हैं, जो हर स्तर पर महिलाओं को या तो देवी मानता है या दासी। बराबरी की हैसियत नहीं देता। औरत की लाचारी, भोग तक विस्तार पाती है। मैं जानता हूं कि सशक्तीकरण सिर्फ कानून के वश की बात नहीं है। सामाजिक चेतना जरूरी है। लेकिन यह भी बड़ी बात है कि महिला को मजबूत नहीं होने दिया गया। यह समझ अब दरक चुकी है। मुख्यमंत्री बालिका साइकिल व पोशाक योजना का परिणाम ही मुख्यमंत्री की नई घोषणा (पुलिस भर्ती व सहकारी संगठनों के पदों पर आरक्षण) के बहुआयामी दायरे की शर्तिया गवाही है। त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था, नगर निकाय, पंचायत व नगर शिक्षकों की नियुक्ति में महिलाओं के लिए पचास फीसद आरक्षण व्यवस्था के नतीजे खुलेआम हैं। अभी तो महिलाओं के दस लाख स्वयं सहायता समूह बनने हैं। महादलित महिलाओं के लिए साक्षरता योजना चलनी है। बेटियों को मार्शल आर्ट और जूडो कराटे की ट्रेनिंग मिलनी है। और फिर इस बुनियाद का चरम …, क्या नजारा होगा-कल्पना कीजिए।
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