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समयसीमा का समय!

फंटूश
फंटूश
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अबकी विधानसभा में बड़ा मजेदार सवाल उठा। यह कुछ इस प्रकार है-अध्यक्ष महोदय, समयसीमा का समय क्या है? सवाल पूछने वाले माननीय (विधायक) विधानसभा अध्यक्ष से यह जानना चाहते हैं कि आखिर कितने समय में समयसीमा पूरी होती है? हमलोग इसे इस तरह भी पढ़, जान सकते हैं- समयसीमा को पूरा करने में कितना समय लगता है?
मैं देख रहा हूं-मंत्री जी, बार-बार समयसीमा बोलकर माननीय को शांत और संतुष्ट कराना चाहते हैं। अध्यक्ष जी ने भी शांति की पूरी गुंजाइश बनाई हुई है-माननीय मंत्री, इसे गंभीरता से लीजिए। समयसीमा का ख्याल रखिए। अब मैं यह देख रहा हूं कि समयसीमा ही सवाल हो गई है, एजेंडा बन गया है। राजद के अख्तरूल ईमान कह रहे हैं-अध्यक्ष महोदय, समयसीमा शब्द बड़ा भ्रमित करता है। यह शब्द शब्दकोष में नहीं है।
हिन्दीसेवी इस पर बहस कर सकते हैं। मैं दूसरे कारण से चौंका हूं। बेशक, नेता और समयसीमा …, इससे बड़ा कंट्रास्ट नहीं हो सकता है। यह बहुत कन्फ्यूजिंग भी है। खैर, मैं अब पूरी तरह जान गया हूं कि नेता, आदमी के दुनियावी हिसाब-किताब से क्यों परे है? क्यों, उसे देश-काल की सीमाओं में नहीं बांधा जाता है?ï वह कहीं से चुनाव लड़ सकता है; कभी भी, किसी भी पार्टी में मौज का हकदार है।
मुझे एक और नया ज्ञान हुआ है-नेता की अपनी समयसीमा होती है। जब वह समयसीमा बताता है, तो बड़ा मजा आता है। एक पुराना प्रसंग याद आ रहा है। डा.भोला सिंह नगर विकास मंत्री थे। वे विधानसभा में जवाब दे रहे थे-अध्यक्ष महोदय, अतिक्रमण या अतिक्रमण मुक्ति अभियान तो शाश्वत प्रक्रिया है। इसकी कोई समयसीमा हो सकती है? दन में ठहाका गूंजा। यह अप्रत्याशित नहीं था।
लेकिन उस दिन डा.प्रेम कुमार (नगर विकास मंत्री) को सुनते हुए मैंने जाना कि राजकाज में समयसीमा, पर्सन टू पर्सन बदलता है। डाक्क साब कह रहे थे-दो दिन में राजधानी पटना से वैसे सभी मोबाइल टावर हटा दिए जाएंगे, जो मानक के अनुरूप नहीं हैं। उन्होंने आन स्पाट (विधानसभा) इस मसले का निपटारा देन एंड देयर कर दिया। इसके कई दिन गुजर गए हैं। मुझे लगता है कि एक भी छत से टावर नहीं हटा है। मेरा यह ज्ञान और मजबूत हुआ है कि नेता जो कहता है, वह शायद ही करता है।
मैं देख रहा हूं अब सदन में  समयसीमा भरोसे का मसला नहीं है। समयसीमा, विपक्षी नेताओं के शोर-शराबे की वजह बन गई है। इसमें वे लोग भी शामिल हैं, जो मेरी राय में समयसीमा से भरोसा उठाने के पहले जिम्मेदार हैं। किस पर, कौन, कितना और कब तक भरोसा करेगा? इसकी कोई समयसीमा है?
जरा, इस समयसीमा को देखिये। संजय सरावगी दरभंगा मेडिकल कालेज अस्पताल में इंसीनेटर मशीन के खराब होने का मामला उठाए हुए थे। अध्यक्ष ने मंत्री से कहा-इसे गंभीरता से लीजिए। समयसीमा में मशीन ठीक कराइए। स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे ने राहत की सांस ली। फौरन हामी भरी। बात बस खत्म होने ही वाली थी कि संजय सरावगी ने कहा -अध्यक्ष महोदय, सदन में यह मसला पांचवीं बार आया है।
मेरी गारंटी है समयसीमा का इतना बहुआयामी प्रयोग कहीं नहीं होता है। हर सवाल में समयसीमा पूछी जा रही है। देखिए-मरम्मत की समयसीमा, जमीन पर दखल मिलने की समयसीमा, जिम्मेदार अफसरों पर कार्रवाई की समयसीमा, निर्माण की समयसीमा, भू-अर्जन का मुआवजा देने की समयसीमा, अगलगी के शिकार लोगों को इंदिरा आवास, नहर पथ का पक्कीकरण, घोटालेबाजों की गिरफ्तारी की समयसीमा …, बाप रे समयसीमा का इतना अधिक प्रयोग! ब्लड बैंक से समयसीमा जुड़ती है। खाद की समुचित उपलब्धता से समयसीमा सरोकार रखती है।
यह थोड़ी पुरानी बात है। लाजवाब है। गौर फरमाएं- ग्यारह नवंबर 2008 को नागमणि जी (तत्कालीन कृषि मंत्री) विधानसभा में कह रहे हैं-दो दिन में आलू उत्पादकों के मुआवजा के मामले का निष्पादन हो जाएगा। चार दिसंबर को मंत्री जी सदन में फिर बोल रहे हैं-यह मामला 15 दिसंबर तक निष्पादित हो जायेगा। एक जानकारी-उनके मंत्री रहते यह मामला नहीं निपटा।
समयसीमा का बैकलाग है। भरोसा यूं ही उठा है? विधानसभा, यानी सर्वोच्च जनप्रतिनिधि सदन में जनता कहां है, तय कीजिए। कर पाएंगे?

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