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सलीब पर विज्ञान

फंटूश
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मैंने सुरेश राय की चीत्कार सुनी है। आपने सुनी है? उसकी पांच साल की बेटी काजल, सबके सामने तड़प-तड़प कर मर गई। काजल को तेज बुखार था।
सुरेश, सलेमपुर (अहियापुर, मुजफ्फरपुर) के रहने वाले हैं। उसने अपने हिसाब से काजल को सबसे बड़े अस्पताल (एसकेएमसीएच, मुजफ्फरपुर) में भर्ती कराया था। बेचारे को बड़ा भरोसा था। टूट गया। डाक्टर बड़े आराम से बोलकर चुप हो लिए कि एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस)। अब काजल उस सरकारी कागज में दर्ज एक नाम भर है, जिसका कोई मतलब नहीं है।
आजकल यही हो रहा है। बच्चे मर रहे हैं। डाक्टरों को कुछ बोलना-बताना है, इसलिए कारण के रूप में बोल, लिख दे रहे हैं- एईएस। अस्पताल की सूची को बच्चे आगे बढ़ा रहे हैं। बस। यह सब पिछले चार साल से हो रहा है। यह कोई नहीं बताता है कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा?
मेरी राय में यह बच्चों की मौत भर नहीं है। अपना बिहार (खासकर मुजफ्फरपुर जिला), दरअसल 21 वीं सदी के दुनियावी विकास और चिकित्सा विज्ञान को सलीब पर टांग चुका है। वाकई, यह कैसी तरक्की है? इंसान, चांद व मंगल के बाद दूसरे ग्रहों के लिए अपना रास्ता बना रहा है। और हजार से अधिक बच्चों की मौत के बाद इसका सटीक इलाज क्या, वजह तक तय नहीं कर पाया है। पिछले साल केंद्रीय टीम आई थी। बीमार बच्चों का नमूना लेकर गई थी। अभी तक कुछ तय नहीं कर पाई है।
सीन देखिए। सबकुछ एकसाथ हो रहा है। देश चल रहा है। राज्य चल रहा है। समाज चल रहा है। राजनीति चल रही है। टीकाकरण चल रहा है। जागरूकता अभियान चल रहा है। दिल्ली से टीम आई हुई है। बच्चों को बचाने का दावा चल रहा है। तैयारी चल रही है। बच्चे मर रहे हैं। बहुत सारे बच्चे मरने को तैयार हैं। मरेंगे। हद है। तो क्या एक बुखार से आदमी की तरक्की हार गई है? कोई बताएगा?
चलिए, मैं बताता हूं। पिछली बार जब इस बीमारी से कोहराम मचा था, तब चार ग की बात सामने आई थी। कहा गया था कि यही इस बीमारी की वजह है। यह चार ग इस प्रकार है-गांव, गरीबी, गंदगी और गर्मी। स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे ने प्रभावित गांवों को गोद लेने की बात कही थी। अभी सरकार की गोद में कितने गांव हैं? मुझको तो जानकारी नहीं है। मेरी राय में महान भारत की महान संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में गांव को गोद लेना लाजवाब टर्मलाजी है। यह पब्लिक को तुरंत संतुष्ट करने का उपाय है। चार ग, वस्तुत: गांव, गरीबी, गंदगी और गर्मी को गोद लेने की बात है। अपना भारत आजादी के बाद से इस महान उद्देश्य की पूर्ति में लगा है। यह बुखार, आदमी से आदमी के सरोकार का भी गवाह है। आदमी की दुनिया को मेडिकल साइंस की चुनौती है। दुनिया को खुशनुमा बनाने के तमाम जिम्मेदार तंत्र कठघरे में हैं। क्या बच्चों को मरने की खबरें भारत की सीमा को पार नहीं की हैं? कहां है डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन)? कहां हैं अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस …, शोधपरक जमात?
मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। अमरजीत सिन्हा स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव थे। उन्होंने कहा था-इस बीमारी पर किसी का वश नहीं है। क्योंकि वायरल पीडि़त बच्चों के लिए विंडो पीरियड (बहुत कम समय) होता है। इलाज में देरी होने पर पीडि़त बच्चे बीमारी से ज्यादा देर सामना नहीं कर पाते हैं। मैं अभी एसकेएमसीएच के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष डा.ब्रजमोहन को सुन रहा था-उमस के कारण पीडि़त बच्चों की संख्या बढ़ सकती है। कुछ जानकार आजकल रोज कहते हैं कि यदि वर्षा जल्द हो जाए, तो दिमागी बुखार से प्रभावित बच्चों की संख्या में काफी कमी आ जाएगी। बरसात आते ही यह बीमारी स्वत: खत्म हो जाएगी। यानी, मान लिया जाए कि आदमी की यह दुनिया, उसका विज्ञान, उसकी डाक्टरी तरक्की इस बीमारी का इलाज तय नहीं कर पाया है? पिछले साल से अब तक सवा चार सौ बच्चों की मौत हो चुकी है।
पिछले साल तो ऐसा दिखाया गया था कि यह बीमारी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। डाक्टरों की छुट्टी रद कर दी गई। रोटेशन पर जहां-तहां डाक्टरों को भेजा गया था। इसको रोकने के लिए ढेर सारी घोषणाएं हुईं थीं। अस्पतालों में विशेष वार्ड बने थे। यह सब करीब पौने चार सौ बच्चों के मरने के बाद हुआ था। सही में ऐसा था? जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि जिन क्षेत्रों में बीमारी का प्रकोप अधिक है, वहां डीडीटी, मेलाथिलिन की फागिंग हुई है कि नहीं? और सबसे बड़ा सवाल है कि फिर भी बच्चे मर क्यों रहे हैं?

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