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21 वीं सदी में कमजोर वोटर!

फंटूश
फंटूश
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यह बड़ी दिलचस्प जानकारी है। ध्यान से पढि़ए। सब समझ जाएंगे। जान जाएंगे कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली वाले महान भारत का महान राज्य बिहार, इक्कीसवीं सदी में कहां तक पहुंचा है? किस मानसिकता को जी रहा है? मालिक जनता, कितनी मालिक है और कितनी गुलाम है?

खैर, यह जानकारी इस प्रकार है। आजकल चुनाव आयोग रोज दिन ऐसे टोलों को तलाश ले रहा है, जहां कमजोर वर्ग के लोग बसते हैं। आशंका है कि इनको वोट देने से रोका जा सकता है। एक और मजेदार बात। इनको कौन रोक सकता है, वे भी पहचान लिए जा रहे हैं। आज, यानी रविवार को ऐसे 54 टोले पहचाने गए। जो लोग इनको वोट देने से रोक सकते हैं, उनकी आज की संख्या 749 रही। अभी तक बिहार में ऐसे सत्रह हजार टोले पहचाने गए हैं। यहां करीब सत्रह लाख वोटर हैं। इनको बूथ पर जाने से रोकने वाले 56 हजार लोग पहचाने गए हैं। दोनों की संख्या और बढ़ेगी। चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा और उनके साथ आए बड़े अफसर यह कहकर खुश-खुश होकर लौटे हैं कि कमजोर वर्ग के लोगों को वोट देने से कोई नहीं रोक सकेगा। इसकी पुख्ता व्यवस्था की जा रही है।

यह क्या है? क्यों है? यही इक्कीसवीं सदी का बिहार है? वही लोकतंत्र की जन्मभूमि है, जहां लोगों को वोट देने से रोका जाता है? यह आदमी या उसके दिमागी विकास का रिवर्स गियर है? चुनाव आयोग कहता है- ऐसा नहीं होगा। बेशक, यही हो। यह सबकी कामना है। लेकिन बड़ा सवाल है कि आखिर यह नौबत क्यों है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? ये दबंग कौन हैं, और किनके वोटरों को बूथ पर नहीं पहुंचने देते हैं? ढेर सारे सवाल हैं। हर सवाल में कई-कई सवाल हैं। जहां आजादी के करीब साढ़े छह दशक बाद भी जनता को इस विवशता में छोड़ दिया गया हो, उसके रहनुमाओं को क्या कहेंगे? लोकतंत्र में वाकई, जनता मालिक है?

मैं, उस दिन सत्ताधारी जदयू के उन नेताओं को सुन रहा था, जो चुनाव आयोग की टीम के पास शिकायत दर्ज कराकर लौटे थे। उन्होंने टीम को बताया कि उनके वोटरों को आतंकित किया जा सकता है। गरीब, महादलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक और कमजोर लोगों के मतदान से रोका जा सकता है। दबंग लोग किसी खास उम्मीदवार के पक्ष में मतदान के लिए इन पर दबाव भी डाल सकते हैं। जदयू ने अपने हिसाब से ऐसे टोलों की पहचान की है। आयोग को भी बताया है। राजद, कांग्रेस व बसपा के नेता भी कमोबेश यही आशंका जता रहे थे। इन क्षेत्रों में, बूथों पर केंद्रों बलों की भरपूर तैनाती की मांग कर रहे थे। हद है?

यह उस बिहार की हालत है, जिसने कई-कई सामाजिक आंदोलनों के बूते ढेर सारे लोगों को बुलंदी दी, रहनुमा बनाया। इन्होंने अपनी ईमानदार जिम्मेदारी निभाई? अगर हां, तो फिर आज भी चुनाव आयोग या पुलिस प्रशासन को रोकथाम के इंतजाम क्यों करने पड़ रहे हैं? अगर यह सतत प्रक्रिया है भी, तो कब तक चलेगी? इसकी उम्र …, कोई बताएगा?

मेरी राय में कमजोर वर्ग के लोगों को बूथ पर पहुंचाने का बड़ा श्रेय वामपंथी पार्टियों को रहा है। भाकपा, माकपा के बाद भाकपा माले लिबरेशन ने इसे बुलंदी दी। इससे पहले ये नारे खूब गंूज चुके थे कि वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा। इसी की प्रतिध्वनि मंडलवाद के दौरान बहुत मजबूत जमीन पाई और नब्बे के बाद लालू प्रसाद इसके पुरोधा पुरुष बन गए। वे कहते रहे हैं-बिहार फ्यूडल स्टेट (सामंती राज्य) है। वोट को लेकर नरसंहार तक हुए। लालू ने कमजोर वर्ग के लोगों को वोट की महत्ता खूब समझाई। उनका जुमला सा है-अब रानी के कोख के राजा नहीं जन्म लेता है। यह बैलेट बॉक्स से निकलता है। हालांकि सामाजिक न्याय से शुरू हुई उनकी राजनीतिक यात्रा, माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण तक क्षरण के अंदाज में पहुंची। अब तो इस पर भी आफत है। मंडलवाद की जिंदा पृष्ठभूमि में नीतीश कुमार का दौर आया। वे महादलित को आकार देने में कामयाब रहे। यह वही जमात है, जिसकी मालिक वाली हैसियत के लिए आज की तारीख में भी कवायद चल रही है। यह सवाल पूछा जा सकता है कि जब पार्टियों के बाकायदा सामाजिक समीकरण या आधार हैं, तो फिर इसके दायरे के लोगों को बूथ तक पहुंचने लायक हैसियत देने की जिम्मेदारी किसकी है? यह किसकी विफलता कहलाएगी?

मैं बड़ा बेजोड़ सीन देख रहा हूं। आप भी देखिए। मैं देख रहा हूं कि चुनाव को ले सभी पार्टियां आशंका की चरम दौर से गुजर रही हैं। सबको खतरे का एहसास है। सबको, सबसे खतरा है। जो माहौल है, उसके लिए जाहिर तौर पर सभी जिम्मेदार हैं। यानी, उन्होंने अपने कारनामों से संकट बनाए हैं, उसे खुलेआम भी किया है और समाधान की अपेक्षा चुनाव आयोग से कर रहे हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का चुनाव आयोग से आग्रह था -चुनाव के पहले शराब का वितरण रोकी जाए। शराब कौन बंटवाता है? छुपा है? नवादा में पिछले लोकसभा चुनाव में वोटरों को नकली नोट दिए गए थे। वोट के लिए नोट बांटना, नेताओं का पुराना तरीका है। चुनाव आयोग क्या कर लेगा?

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