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अब मैंने मान लिया है कि अपना महान भारत, वाकई महान है। हम बात से बात को जोड़कर असली बात को हवा में उड़ाने के महारथी हैं। इसलिए बहुत कुछ हवा में है। अभी हम राइट टू रिजेक्ट पर इतरा रहे हैं। बहुत करीने से इसे संसदीय राजनीति व लोकतंत्र की शुद्धि का मंत्र साबित किया जा रहा है। मालिक जनता के कांसेप्ट को किनारा देने वाले कह रहे हैं कि उम्मीदवार को नापसंद करने के हक से पब्लिक और ताकतवर होगी। मैं जानता हूं कि आगे ऐसे ढेर सारे नए-नए सुनहरे शब्द आएंगे। यही तो चालाकी है। पब्लिक को नचा कर अपने को बचा लेने की। अच्छी बात है। आखिर देश चलाने वाले खुद को जानबूझकर क्यों फंसाएंगे?
मगर मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है। 45 परसेंट (फीसद) वाले संसदीय भारतीय लोकतंत्र का क्या मतलब है? कौन, 55 परसेंट वोटरों को बूथ तक आने या वोट देने से रोक देता है? कौन जिम्मेदार है? आखिर अपनी चुनाव प्रणाली, चुनावों में मतदान का प्रतिशत 45-50 प्रतिशत से आगे बढ़ाने में हांफ क्यों जाती है?
मैं समझता हूं कि यह रिजेक्ट टू वोटर है। मालिक जनता को उसकी राय जानने से पहले ही नकार देने की बात है। कभी इस पर बात होती है? क्यों नहीं होती है?
मैं, उस दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुन रहा था। उनसे ओपीनियन पोल के बारे में पूछा गया था। नीतीश कह रहे थे-अरे, छोडि़ए, ओपीनियन पोल। मैं नहीं जानता हूं क्या कि यह कैसे तैयार होता है? सैम्पल साइज क्या है? एक विधानसभा क्षेत्र में दस -बारह लाख वोटर होते हैं और दस-बारह लोगों से बात करके रिजल्ट निकाल लिया जाता है। यह क्या है? इसकी क्या विश्वसनीयता है?
मेरी राय में यह बिल्कुल सही बात है। मैं तो यह कहता हूं कि यही बातें 45 परसेंट वाले अपने लोकतंत्र के लिए भी कही जानी चाहिए। जिस चुनाव में पचास-पचपन फीसद वोटरों की हिस्सेदारी न हो, उसके परिणाम का क्या मतलब है? फिर, बारह-पंद्रह फीसद वोट पाने वाले जीत भी जाते हैं। हद है। यह क्या कहलाएगा? कोई शब्द या टर्म है?
आखिर आधे के करीब या इससे अधिक वोटर बूथों तक क्यों नहीं आते हैं? नेता तो एक-एक वोट को कीमती मानता है। चुनाव आयोग, वोट के अधिकार के उपयोग की सौ फीसद वाली गारंटी करता है। तो क्या यह सब मालिक जनता के स्तर से लोकतांत्रिक व्यवस्था का अघोषित बहिष्कार है या चाहते हुए भी वोट नहीं दे पाने की व्यावहारिक कठिनाई व मजबूरियां हैं? कुछ और सीन देखिए। संख्या बल आधारित बहुमत व्यवस्था इस बड़ी जमात की गैरमौजूदगी के बावजूद तार्किक है। लोकतंत्र की वाहक पार्टियां इसका समाधान तलाशे बगैर 45-50 परसेंट को पर्याप्त मानती हैं। साठ-पैंसठ परसेंट को अस्वाभाविक सा माना गया है। जांच भी हो जाती है।
मेरे मन में कई सवाल उभर रहे हैं। नेता, इसकी चर्चा क्यों नहीं करता है? क्या, यह उसका चेहरा बचाने की कवायद है? वे अपनी परख के दायरे को विस्तारित करना नहीं चाहते हैं? चुनाव से मतदाताओं के रुझान कम करने वाले चेहरे छुपे हैं? सभ्यता की दावेदारी व वक्त के साथ स्वतंत्र-निष्पक्ष चुनाव की चुनौतियां बढ़ती गईं। लोग खासी तादाद में बूथ पर आकर इसे खत्म कर सकते थे। मैं देख रहा हूं ऐसा नहीं होने दिया जा रहा है।
1952 के पहले विधानसभा चुनाव में 52.8 प्रतिशत लोगों ने वोट डाले थे। 1957 व 1962 में लोगों की चुनावी दिलचस्पी में और कमी आयी। इसमें सिर्फ 40.6 व 47.0 फीसदी वोटरों ने शिरकत की। 1969 व 1972 में 52.8 प्रतिशत वोट गिरे। 1977 में, जब आवाम का बड़ा हिस्सा कांग्रेस विरोध के नारों के बूते दहका था, सिर्फ 50.5 प्रतिशत लोगों ने वोट दिए। 1980 से स्थिति सुधरनी शुरू हुई। 57.3 प्रतिशत लोगों ने वोट गिराए। 1985 में 56.3, 1990 में 62.0, 1995 में 61.8 प्रतिशत …, मुझे मेरे सवाल (रिजेक्ट टू वोटर) लगातार भयावह होते दिख रहे हैं।
चुनाव आयोग का दस्तावेज पलटते हुए कुछ दिलचस्प बातें सामने आती हैं। आयोग, वोटर (आबादी) से वोट (बूथ) की अधिकतम दूरी दो किलोमीटर मानता है। उसकी माने तो एक वोट गिराने में बमुश्किल 20 सेकेंड का समय लगता है। यह चुनाव आयोग का स्टैंडिंग आर्डर है। लेकिन असलियत …? उसका यह निपट गणितीय आकलन कारगर है? नहीं, बिल्कुल नहीं। इसके नमूनों की कमी नहीं है। बड़ी लम्बी दास्तान है।
मैंने, बिहार में रिजेक्ट टू वोटर के दूसरे आयाम भी खूब देखे हैं। अक्सर ऐसी खबरें आती हैं-काटे गए वोटर लिस्ट से वोटरों के नाम; बड़ी संख्या में फर्जी वोटरों का खुलासा; फोटोग्राफी हुई पर नहीं मिला वोटर कार्ड; बाप की जगह बेटे की तस्वीर, फ्लोटिंग आबादी वोटर नहीं है …, और आखिर में नियोजित तरीके से मालिक जनता में बना दी गई यह धारणा कि कोई नृप होए, हमें का हानि। अब तय कीजिए कि राइट टू रिजेक्ट पर इतराईएगा या रिजेक्ट टू वोटर पर रोईएगा? आप मालिक हैं, तय कीजिए। कर पाएंगे?
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