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उफ ये कुलपति!

फंटूश
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मुझे इस हफ्ते की कुछ खबरों ने बहुत परेशान किया है। आपसे शेयर करता हूं। भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति पद खाली हो गया है। रूटीन टाइप बात है। हां, इसका तरीका बड़ा दिलचस्प है। देखिये। राजभवन ने कुलपति जी (केएन दूबे) से कहा कि आप 27 जनवरी तक इस्तीफा दे दीजिये, नहीं तो हटा दिये गये मान लिये जायेंगे। इस्तीफा, राजभवन तक नहीं आया। यह पद खाली हुआ मान लिया गया है। दुबे जी, वित्तीय अनियमितता के आरोपी हैं।

मैं देख रहा हूं-मगध विश्वविद्यालय में प्राचार्यों की नियुक्ति पर बवाल है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के गोलमाल का मुकदमा हाईकोर्ट में है।

मुझे प्रो.यशपाल (ख्यात शिक्षाविद) की एक पुरानी बात याद आ रही है-अभी के अराजक दौर में किसी वास्तविक शिक्षाविद को कुलपति का पद स्वीकारना अपने अस्तित्व को मारना होगा। तो क्या जो कुलपति बन रहे हैं, वे …? शिक्षाविद, गोलमाल नहीं कर सकता है? शिक्षाविद, घोटालेबाज नहीं हो सकता है? आदमी, माहौल बनाता है या आदमी माहौल के अनुरूप ढल जाता है? यह आदमी की विवशता होती है? प्रो. यशपाल के शिक्षाविद की परिभाषा में कितने लोग फिट हैं? ढेर सारे सवाल हैं।

माहौल को ले एक पुरानी बात याद आ रही है। रामलषण राम रमण, उच्च शिक्षा मंत्री थे। राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। रमण जी विधानसभा में कविता पढ़ रहे थे-रम पीयूं कि ह्विïस्की …, बात करूं मैं किसकी-किसकी! सही में कोई भी तो नहीं बचा है। मैंने बचपन में पढ़ा था-नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने जला दिया था। सबकुछ बर्बाद हो गया था। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि आखिर बिहार के मौजूदा विश्वविद्यालयों को किसने चौपट किया? कोई बतायेगा? कोई मेरी मदद करेगा? किसके पास है ईमानदार जवाब? मेरी राय में राज्य में उच्च शिक्षा की दुर्दशा के जो कालखंड हैं, वह कमोवेश सभी को जिम्मेदार ठहराते हैं। जहां तक मुझे याद आ रहा है, उम्र के हिसाब से पटना विश्वविद्यालय, देश का सातवां विश्वविद्यालय है। हालांकि इससे पहले पटना कालेज (1863), बीएन कालेज (1889), टीएनजे (बी.) कालेज भागलपुर (1888), डायमंड जुबली कालेज मुंगेर (1889), जीबीबी कालेज मुजफ्फरपुर (1899) की स्थापना हो चुकी थी। कोष्ठïक में स्थापना वर्ष है। ये सभी प्रीमियर इंस्टीट्ïयूट थे। देश- दुनिया में नाम था। 1928 में सायंस कालेज (पटना) का उद्ïघाटन वाइसराय लार्ड इरविन ने किया। यह नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के रूप में शैक्षणिक थाती रखने वाले बिहार का कल था। और आज? यही सुनहरी पृष्ठभूमि मेरे दिमाग को फाडऩे पर उतारू है।

मैं समझता हूं कि यह स्थिति बिल्कुल स्वाभाविक है। सही में जब कुलपति ही गोलमाल करने लगें, जेल जाने लगें, तब …! हरेक सक्षम बिहारी की पहली प्राथमिकता रहती आयी है कि वह अपने बच्चे को दूसरे राज्य में पढऩे भेज दे। क्यों? कौन, कितना जिम्मेदार है? कांग्रेसी जमाने की धांधली, मनमर्जी या कानून की अपनी व्याख्या का भारी रिकार्ड है। शासन पर एकाधिकार व एकदलीय केंद्रीकृत व्यवस्था की विसंगतियों को विश्वविद्यालयों ने भी जमकर झेला। अपने राज्यपाल और उनके मार्फत पसंदीदा कुलपति। विश्वविद्यालय राजनेता-नौकरशाहों, यानी तमाम बड़ों के नये चारागाह साबित हुए। आधार जाति व पैसा रहा। इसी पृष्ठïभूमि में आज भी यहां अक्सर यह बहस चलती है कि कुलाधिपति कार्यालय तानाशाही चला है कि राज्य सरकार उससे रबड़ स्टाम्प वाली उम्मीद किये हुए है? अक्सर यह फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि सरकार व कुलाधिपति कार्यालय में ज्यादा कानून पसंद कौन है या फिर दोनों ही अपने फायदे के मुतल्लिक अधिकार क्षेत्र के तहत अपनी-अपनी मनमर्जी ठोंके हुए हैं? ऐसे दूसरे बुनियादी सवालों की कमी नहीं है।

मुझे कोई बतायेगा कि करीब पैंतीस वर्ष से कुलपतियों की बैठक का एजेंडा लगभग एक सा रहा है। वही 180 दिन पढ़ाई, वित्तीय, शैक्षणिक, प्रशासनिक अनुशासन, समय पर उपयोगिता प्रमाणपत्र, एकेडमिक कैलेंडर, सेंटर आफ एक्सीलेंस के उपाय, अंकेक्षण प्रतिवेदन, महालेखाकार व वित्त विभाग की आपत्तियों पर तत्काल कार्रवाई, अंकेक्षण समितियों का गठन, हड़ताल के कारकों का खात्मा, पेंशन, मुकदमों की कमी, ट्यूरोयिल क्लास, प्रायोगिक कक्षा, अस्थायी शिक्षकों की नियुक्ति …! कभी ये सब ठीक भी होंगी?

1982 की वित्तरहित शिक्षा नीति ने शिक्षा को कारोबार बना दिया। कुलपति का पद राजनीतिक हो गया। अक्सर कुलपति-प्रति कुलपतियों की नियुक्ति पर सरकार और राजभवन टकराता रहा है। आज तक विश्वविद्यालयों का अंकेक्षण पूरा नहीं हो पाया है। मनमर्जी से प्रोन्नति हासिल की गई। स्वायत्तता के नाम पर बेलगाम बने विश्वविद्यालयों के कारनामे हरि अनंत हरि कथा अनंता जैसे हैं। तो क्या ये कभी नहीं सुधरेंगे? अज्ञानी पीढ़ी पैदा करने से बड़ा अपराध कुछ होता है?

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