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जात पर उतरे नेता

फंटूश
फंटूश
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नेता, जात पर उतर आए हैं। अपनी-अपनी जात बता रहे हैं। मेरे लिए यह नया ज्ञान है। मैं, अभी तक यही जानता था कि नेता एक जात के होते हैं; उनकी अपनी जात होती है। मैं भ्रम में था।

जरा, यह सीन देखिए। नेता अपनी-अपनी जात की गुणवाचक परिभाषा भी बता रहे हैं। लोग, नेताओं की जात जान रहे हैं। नेता अपने को अपनी जात का नेता बता रहे हैं। जात-जात में लड़ाई का सिचुएशन बनाया जा रहा है। विजयकृष्ण (राजद नेता), समाजवादी रहे हैं। बिहार के समाजवादी, जात तोड़ो- जनेऊ तोड़ो आंदोलन के उत्कट सहभागी रहे हैं। खैर, अब विजयकृष्ण से क्षत्रिय (राजपूत) की परिभाषा सुनिए -क्षत्रिय की दो सौ से अधिक उपजातियां हैं। कुछ बहुत पिछड़े हैं। क्षत्रिय का धर्म सदैव कमजोर वर्गों की रक्षा करना है। इसी के चलते राम को पुरुषोत्तम कहा गया है। उनके पास बैठे वीर कुंवर सिंह विचार मंच के अध्यक्ष मनोज सिंह परिभाषा को विस्तारित कर रहे हैं-क्षत्रिय दरबानी नहीं करता है। किसी की पीठ में छुरा नहीं भोंकता (मारता) है। (निशाने पर जदयू  प्रदेश प्रवक्ता संजय सिंह हैं।).

संजय सिंह की सुनिए-मैं क्षत्रिय हूं। क्षत्रिय, किसी की हत्या नहीं करता है। सबकी रक्षा करता है। क्षत्रिय, शरण में रहने वाले की हत्या कदापि नहीं करता है। विजयकृष्ण, सत्येंद्र सिंह की हत्या के मामले में जमानत पर हैं। उनका बेटा जेल में है।

मैं, उस दिन परिवर्तन रैली में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को सुन रहा था। उन्होंने संजय सिंह और संजय झा को देशी एलसेशियन कहा। दो बार मुस्कुराते हुए बोले-देखिए, मैं कुत्ता नहीं बोल रहा हूं। एलसेशियन कह रहा हूं। मैं देख रहा हूं अबकी इसी के बाद से नेता अपनी-अपनी जात पर उतरे हैं।

संजय अपनों को अपनी मायूसी सुना रहे हैं-मुझे एलसेशियन कहकर लालू जी ने पूरे क्षत्रिय समाज को गाली दी है। 1990 में उन्होंने भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) साफ करो का आह्वान किया था। मुझको और संजय झा को एलसेशियन कहकर लालू जी ने साबित कर दिया है कि उनको ऊंची जात से अब भी एलर्जी है। संजय झा ब्राह्मण हैं। झा जी की तरफदारी में मिथिलांचल के मानिंद लोगों का बयान आया है-ब्राह्मणों के प्रति लालू जी के मनोभाव में कोई बदलाव नहीं हुआ है। उनका सवर्णों से क्षमायाचना, मिथ्या आडम्बर है। राजद (चितरंजन गगन) का जवाब सुनिए-ब्राह्मïणों ने कभी सत्ता के लिए चापलूसी नहीं की है। राजद जितना सम्मान उनको कभी किसी ने नहीं दिया। मैं यह मजेदार सीन भी देख रहा हूं कि दोनों पक्ष (जदयू-राजद) एक- दूसरे पर प्रदेश का माहौल बिगाडऩे का आरोप कर रहे हैं। मेरी राय में यह बचाव की मुद्रा है।

मुझे एक और ज्ञान हुआ है। मैंने पहली बार जाना है कि नेताओं की अपनी डिक्शनरी होती है। सबकी अपनी- अपनी डिक्शनरी है। इसके शब्द व इसके अर्थ आम लोगों की डिक्शनरी से बिल्कुल मेल नहीं खाते हैं। इसके कुछ पन्नों को देखिए। विजयकृष्ण की डिक्शनरी में एलसेशियन का मतलब फ्रांस का एक कुनबा है, जो बेहद वफादार होता है। संजय सिंह की डिक्शनरी कहती है कि एलसेशियन का मतलब सिर्फ कुत्ता होता है। संजय की डिक्शनरी, आक्सफोर्ड डिक्शनरी जैसी है। दोनों के शब्द व अर्थ में पूरी समानता है।

नेता की डिक्शनरी में बंदर, दोमुंहा सांप, छुछुंदर, बेताल, ठग, झू_ा-लबाड़, सांढ़, अंधा, बिना पेंदी का लोटा, थाली में छेद करने वाला, पागल, बताह, कुत्ता, बिल्ली …, जैसे शब्द खूब हैं। इनका खूब इस्तेमाल होता है।

यह सब क्या है? क्यों है? इसका मकसद? समाज, राज्य, देश …, आखिर नेता, पब्लिक को कहां ले जा रहे हैं? चुनावी मौकों पर जातीय सम्मेलन व फतवों की लंबी फेहरिस्त होती है। यह बिहार का मध्ययुगीन मिजाज नहीं है? अगर कहीं से यह जागरूकता का पर्याय है भी, तो समग्रता में फायदा समाज को नहीं मिलता है। हां, पूरी बिरादरी की इमोशनल ब्लैकमेलिंग के बूते एकाध लोग कुर्सी के और करीब आ जाते हैं; बाद के दिनों में उनका खानदान क्रीमिलेयर की औकात पाता है। यह गलत है?

बहरहाल, धर्म तो निरपेक्षता की कसौटी बना दी गई किंतु राजनीति की कूट चालें इस वाजिब सवाल को उभरने तक नहीं दे रहीं हैं कि प्रदेश का कुनबाई बंटवारा करने वाले कितने सांप्रदायिक हैं? कोई बताएगा? निश्चित रूप से सूबाई राजनीति में जात, गोलबंदी का सशक्त जरिया रहा है। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। राजनीतिक पार्टियां जातीय जमीन से खुराक पाकर ही फलती-फूलती रहीं हैं। लोग अपने अलग-अलग नायक तलाशते रहे हैं। मगर अभी की स्थिति में देश की एकता-अखंडता …?

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