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जाति की बिसात पर नाचेगी पब्लिक?

फंटूश
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मैं, राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को सुन रहा था। वे कह रहे थे-राजपूत भाइयों, भाजपा राजपूतों के खिलाफ है। जसवंत सिंह को देखिए। भाजपा ने उनके साथ जैसा सलूक किया है, इसके बाद कुछ बताने की जरूरत नहीं है।

पांच दिन ही दिन सही मगर बिहार के मुख्यमंत्री रहे सतीश प्रसाद सिंह को बुढ़ापे में जाति याद आई है। उन्होंने भाजपा पर कुशवाहा जाति की घोर उपेक्षा का आरोप लगा उससे नाता तोड़ लिया। सिंह साहब अब राजद के साथ हैं। उन्होंने कहा है-मैं कुशवाहा बहुल क्षेत्रों में राजद के लिए प्रचार करूंगा।

मीडिया में अचानक सुर्खियां पाए साबिर अली सबको जदयू से बेटिकट होने का कारण बता रहे हैं। उनके अनुसार चूंकि मैं मुसलमान का बेटा था, इसलिए जदयू ने मुझे राज्यसभा नहीं भेजा। कुर्मी का बेटा होता, तो ऐसा नहीं होता।

यह कुछ उदाहरण हैं, इस बात के कि कैसे आजकल नेता जातीय घुट्टी से जनता को चार्ज कर रहे हैं, उनको जाति की बिसात पर नचाने की भरपूर कवायद में हैं। जनता नाचेगी? अब तक का अनुभव तो उसके नाच जाने का ही रहा है।

असल में नेताओं के लिए यह सबसे सहूलियत वाला तरीका है। इसकी आड़ में उनके सभी कारनामे छुप जाते हैं। उनके मुद्दों, किए गए काम आदि को जाति बुलंदी की गारंटी देती है। नरेंद्र मोदी भी यहां आते हैं, तो जाति की बात करना नहीं भूलते।

यह नेताओं या पार्टियों का वह दोहरापन है कि चुनाव में कैसे बात बड़े मुद्दों की हुई है लेकिन असलियत में चुनाव या मतदान का आधार अब भी जाति को ही बनाया गया है। भाजपा, जदयू, राजद, कांग्रेस, लोजपा …, यानी किसी ने भी उम्मीदवारी तय करते वक्त अपने सामाजिक समीकरण से अलग होने की हिम्मत नहीं दिखाई।

बिहार में शुरू से जातीयता की बड़ी मजबूत जमीन रही है। त्रिवेणी संघ, अर्जक संघ, जगदेव प्रसाद व जाति तोड़ो-जनेऊ तोड़ो का आंदोलन …, जातीयता की गुंजाइश बढ़ती गई। ये नारे खूब लगे-वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा-नहीं चलेगा, पिछड़ा पावै सौ में साठ, रोम पोप का मधेपुरा गोप का। मंडलवाद, सामाजिक न्याय से लेकर माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण …, विरोधाभास है। कसूरवार तय करना मुश्किल है। कुर्मी चेतना महारैली के बाद जब समता पार्टी बनी, तो इसे पिछड़ों का विभाजन माना गया। यहां कुर्सी के लिए जातीयता से जुड़े ढेर सारे आख्यान हैं। 1926 की काउंसिल, 1937 की प्रांतीय सभा, 1938 का जिला परिषद चुनाव …, आजादी के दौर में भी जाति आधारित राजनीति, उठापटक खूब हुई। हां, तब इसका स्वरूप अभी जैसा घिनौना नहीं था।

खैर, इसी पृष्ठभूमि में बिहार में हर जाति का संगठन बना। एक जाति के कई-कई संगठन हैं। संगठनों के पदों पर नेता हैं। जाति के आगे पार्टी लाइन मायने नहीं रखती। आम बिहारी राजपूत, ब्राह्मïण, भूमिहार, कोइरी, कुर्मी, यादव, वैश्य …, बना दिया गया है; खांचे में बांट दिया गया है। बिहारी, उसका स्वाभिमान भी मुद्दा है। महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, स्वामी सहजानंद, श्रीकृष्ण सिंह, कर्पूरी ठाकुर …, सबको जाति के दायरे में बांधा जाता रहा है। ढेर सारे समीकरण हैं- माई (मुस्लिम-यादव), लव-कुश (कुर्मी- कुशवाहा), डीएम (दलित-मुस्लिम), एसडीएमवीएस (सवर्ण, दलित, मुस्लिम, वंचित समाज), महादलित। पसमांदा मुस्लिम महाज है व बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा भी।

खैर, जातीय संगठन टिकट के लिए पार्टियों पर दबाव बनाने का चरण पूरा कर चुके हैं। अब फतवा का दौर आ चला है। यह जाति तोड़ो-जनेऊ तोड़ो आंदोलन के उत्कट सहभागी  रहे बिहार का मध्ययुगीन परिदृश्य या मिजाज नहीं है? अगर कहीं से यह सामाजिक जागरूकता का पर्याय है भी, तो समग्रता में इसका फायदा समाज को नहीं मिलता। हां, पूरी बिरादरी के भावनात्मक शोषण की बदौलत एकाध लोग कुर्सी के और करीब जरूर आ जाते हैं। बाद के दिनों में उनका खानदान क्रीमिलेयर की औकात पाता है। यह मौजूदा राजनीति का सपाट व व्यावहारिक पक्ष है। वह बहस या सामाजिक- मनोवैज्ञानिक व्याख्या नहीं कि कैसे इसके मूल में सदियों का स्वाभाविक जातीय संघर्ष या आग्रह है।

बेशक, जाति और राजनीति में अन्योन्याश्रय संबंध है। सही में जब सामाजिक संगठन का आधार ही जाति है, तो फिर राजनीति इससे कैसे अछूती रहेगी? लेकिन यह भी इतनी ही बड़ी सच्चाई है कि यह दो कौमों के तनाव या संघर्ष (सांप्रदायिकता) से भी ज्यादा खतरनाक है। यह तय करना मुश्किल है कि जातीय उद्वेग वोट हमारा राज तुम्हारा वाली हकमारी की खिलाफत की वाजिब परिणति है या चालाक राजनीतिज्ञों का जनता के बुनियादी सवालों से बरगलाने की कोशिश है। बिहार के संदर्भ में दोनों ही बातें सही हैं।

संख्या के खेल वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में निश्चित रूप से बहुसंख्यक आबादी, सवर्ण ठगी का शिकार रही है। और यही स्थिति इस समझ का आधार भी बनी है कि वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। मगर सच्चाई यही है कि एक मुसहर या मेहतर को उम्मीदवार बनाकर उसे पूरे देश में बतौर मुखौटा पेश किया जाता है। और इसके एवज में पूरा समाज …, ऐसे में एकता-अखंडता कितना महफूज है? कोई बताएगा?

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