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नाम का पत्थर

फंटूश
फंटूश
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मैंने इधर लालू प्रसाद को इतने  गुस्से में नहीं देखा था। वे कह रहे थे-हद है। हमलोगों के नाम का पत्थर (शिलापट्ट) हटा दिया। मैंने नीतीश जी (मुख्यमंत्री) से कह दिया कि हमारा हटा है, तो हम आपका भी (शिलापट्ट) तोड़ देंगे, ढाह देंगे। मैंने कमिश्नर, डीएम, एसपी …, सबसे बात की।
लालू का गुस्सा छपरा इंजीनियरिंग कालेज से जुड़ा था। मुख्यमंत्री के रूप में राबड़ी देवी ने 2004 में इसका शिलान्यास किया था। पत्थर का बड़ा सा शिलापट्ट लगा। इसमें लालू प्रसाद का भी नाम सुनहरे रंग में था। जब कालेज के उद्घाटन का दिन आया, तो लालू प्रसाद का यह बयान आ गया। खैर, शिलान्यास वाला शिलापट्ट उद्घाटन वाले शिलापट्ट के पास में लगा है। राजद के लोग इसे अपनी उपलब्धि मान रहे हैं। वाकई, यह ऐसा कुछ है? क्या यह मसला मुख्य प्रतिपक्ष की राजनीति की उपलब्धि का पैमाना हो सकती है? राजद के लोकल नेता लालू-राबड़ी वाला शिलापट्ट न लगने पर आंदोलन की चेतावनी दिए हुए थे।
लालू जी और उनके लोगों का गुस्सा जायज है। किंतु कुछ और जायज बातें भी हैं। पहली यह कि वास्तव में लालू-राबड़ी जी के नाम वाला शिलापट्ट जानबूझकर हटाया गया था? यह उसी स्थिति में रखने लायक था? आठ साल कम होते हैं? जंगल-झाड़ उग आया था। नाम के रंग उड़ से गए थे। मिट्टी भराई के चलते यह पत्थर दब गया था। बड़ा बेकार हो गया था। हटा दिया गया था। पत्थर पर नाम साटने वाले इसके बाद फिर कभी वहां गए थे? हां, जब कालेज के उद्घाटन का दिन आया, तो सबको अपने-अपने नाम अचानक याद आ गए। इस क्रम में लालू जी की व्यग्रता और उनका गुस्सा सामने है। उन्होंने इसके लिए मुख्यमंत्री, कमिश्नर, डीएम, एसपी से बात की। उन्होंने इसे एजेंडा बना लिया। वे इसे ओछी राजनीति के रूप में प्रचारित कर रहे थे। 
बहरहाल, इसी क्रम में मुख्यमंत्री जी को भी सुनिए-मैं सिर्फ घोषणा करने वाला नहीं हूं। घोषणा व शिलान्यास करना आसान है लेकिन निर्माण कराना काफी कठिन होता है। हमारी सरकार बनी तो मुझे इस कालेज के शिलान्यास की जानकारी हुई। मैंने समीक्षा की। लगा रहा। भवन निर्माण हुआ तो केन्द्र सरकार मान्यता देने में टाल-मटोल शुरू कर दी। मैंने केन्द्रीय मंत्री से बात की अंतत: एआईसीटीई से एनओसी मिली।
मेरी राय में ये दोनों स्थितियां सबकुछ जाहिर कर देती हैं। राजनीति, उसके रंग, जनता, विकास, बेहतरी …, सबकुछ पूरी तरह खुले में आ जाती है। आदमी हमेशा नाम पाने, नाम लूटने की कोशिश में रहता है। नाम का मसला जिंदगी से शुरू होकर जिंदगी के बाद तक विस्तारित होता है। नेता तो नेता है। स्वाभाविक तौर पर नेता, नाम के लिए आदमी से कई गुना अधिक आकांक्षा रखता है। नेता ऐसा करने की हैसियत में होता है। नेता में अमरत्व का भाव ज्यादा होता है। और इसीलिए वह अपना नाम पत्थर पर खुदवाता है। पत्थर टिकाऊ होता है। इससे नाम भी टिकाऊ हो जाता है। यह सब बिल्कुल नार्मल सिचुएशन है। दुनिया का चलन है। इसमें बुराई भी नहीं है। हां, बस नाम के लिए पत्थर लगाना बुरा है; पत्थर लगाकर भूल जाना बुरा है। मुख्यमंत्री की बातें यही कहती हैं। यह भी कि वायदा पूरा करने में बड़ी मशक्कत होती है। 
मैं समझता हूं-इस बात पर बेजोड़ शोध हो सकता है कि बिहार का सबसे पुराना शिलान्यास का पत्थर कौन सा है? यह कब लगा? यह किस हाल में है? अब जार्ज फर्नांडीस से कौन पूछेगा कि उन्होंने मुजफ्फरपुर को मिनी बंबई बनाने की बात कही थी? हुकुमदेव नारायण यादव बताएंगे कि हल्दिया से इलाहाबाद तक के राष्ट्रीय जलमार्ग (संख्या-एक) पर जहाजों की नियमित आवाजाही क्यों नहीं है? खुद लालू जी को याद है कि उनके द्वारा लगावाए गए ऐसे कितने पत्थर उनके नाम को सार्थक कर रहे हैं? ये सवाल दूसरों से भी पूछे जा सकते हैं।
दरअसल, यह नेताओं की पुरानी आदत है। शिलान्यास का पत्थर गाड़कर या फिर एलान के जरिये विकास पुरुष कहलाने की तकनीक भी बड़ी पुरानी है। कभी केंद्रीय मंत्रिमंडल में बिहार की हैसियत थी। गिनते रहिए कि किसके नाम के कितने ज्यादा शिलान्यास या उद्घाटन वाले पत्थर कहां-कहां लगे हैं? नेता लोग तो बेंच, शौचालय, पेयजल संयंत्र (चापानल भी), फुटपाथ तक के लिए अपने नाम का पत्थर लगा देते हैं। बिहार, केंद्र और राज्य सरकार के बीच तनाव का दुर्भाग्य लगातार झेलता रहता है। ऐसे में ये पत्थर चुपचाप कोने में पड़े रह जाते हैं। एक और दिक्कत है। विभाग बदलते ही नेता लोग अपने पुराने एलान, वायदा या फिर शिलापट्ट को भूल जाते हैं। उनके हाथों नए विभाग के संदर्भ में पत्थर लगाने का काम नए सिरे से शुरू होता है। यह सिलसिला चलता रहता है। पत्थर बढ़ते जाते हैं।
मुझे याद आ रहा है कि रेल मंत्री रहे रामविलास पासवान के कार्यकाल की रेल परियोजनाओं के बारे में श्वेतपत्र जारी हुआ था। रेलवे में पत्थर लगाने की बड़ी गुंजाइश है। अपने यहां तो ललित नारायण मिश्र के रेल मंत्रित्वकाल के पत्थर लगे हैं। घोषणाएं पूरी न होने का कौन जिम्मेदार है?
पटना को दायरा मानें, तो मैं समझता हूं कि एक संस्थान में सबसे अधिक शिलापट्ट इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (शेखपुरा) में है। यहां सीढ़ी और शौचालय तक के उद्घाटन- शिलान्यास वाले शिलापट्ट हैं। कितनों को अपना नाम याद है? उसकी इज्जत याद रहती है? यह नाम कमाना हुआ? ऐसे अमरत्व मिलेगा? ऐसा अमरत्व किस काम का?

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