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मैंने नेताओं के तंदरूस्त दिमाग का राज जान लिया है। वह दिमाग, जो कमोबेश रोज दिन दूसरे नेता के लिए नया शब्द गढ़ता है; विशेषण बनाता है और जनता को नारा देता है। वह दिमाग, जो पब्लिक को अपने हिसाब से समझाने और भरमाने में कामयाब रहता है। जो दिमाग फौरन नए तर्क बनाता है, हर मौके को अपना बनाता है। इस दिमाग का सबकुछ अपना होता है। इस दिमाग में हर चीज की अपनी परिभाषा है। नेता का दिमाग एकसाथ वायदा करता है और वादाखिलाफी भी। जिस दिमाग में पुरानी बातों को एकदम से भुला देने का ऑटोमेटिक सिस्टम होता है। जो सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ और है।
मैं समझता हूं कि इसके अलावा भी नेता के दिमाग के ढेर सारे गुण हैं। काम हैं। यह आदमी की तुलना में कई गुणा ज्यादा है। हां, तो बात नेता के दिमाग की तंदरुस्ती की हो रही थी। नेता दिल्लगी खूब करता है। कोई टेंशन नहीं लेता है। वह अपने-आप में टेंशन होता है। उसका टेंशन, देश और जनता झेलती है। मुझे तो कभी-कभी यह लगता है कि नेता के लिए हर चीज दिल्लगी है। इसलिए वह स्वस्थ रहता है। बीपी, सुगर कंट्रोल में रहता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग का वास होता है।
एक और ज्ञान हुआ है। नेता, दिल्लगी भी करता है, तो लगता है कि धोखा दिया है। यह सीधे तौर पर भरोसे से जुड़ा मसला है। आपसे पूछा जा सकता है कि आपको कुत्ता काटा था, जो नेता पर भरोसा किया? गारंटी है आपके पास जवाब नहीं होगा। इस सिचुएशन को आप कहीं भी चुनौती देने की स्थिति में नहीं होंगे।
मैं, उस दिन राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को सुन रहा था। वे ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू के हवाले जदयू के बागी विधायकों के बारे में कह रहे थे-अरे, मैं उनसे (ज्ञानू) लव मैरिज थोड़े करने वाला था, जो कह रहे हैं कि मैंने उनको धोखा दे दिया। ज्ञानू जी के अलावा साबिर अली और इस जमात के कई नेता आजकल लालू प्रसाद के लिए धोखेबाज शब्द को स्थापित करने पर तुले हैं। हद है। लालू, गलत बोल रहे हैं? राजनीति में धोखा की कोई स्थापित परिभाषा है क्या? जब ज्ञानू जी नीतीश कुमार से अलग हो सकते हैं, तो …?
अभी गुजरे राज्यसभा उपचुनाव में एक शब्द, सबसे अधिक सुना गया-धोखा। चुनाव से जुड़े सभी पक्ष, अभी तक एक-दूसरे पर धोखा देने का आरोप लगा रहे हैं; दूसरे को धोखेबाज कह रहे हैं। खुद नेता ही जनता के बीच अपने बारे में यह धारणा मजबूत कर रहे हैं। चुनाव में जो हुआ है, तय करना मुश्किल है कि किसने, किसको धोखा दिया है? कौन कम धोखेबाज है? यह भी कि आखिर भरोसा किस पर किया जाए?
जदयू के वरीय नेता व जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी ने धोखेबाजी की नई परिभाषा बताई है-जो ईमान नहीं बेचता है, वह धोखेबाज है। उनके अनुसार यह भाजपा की परिभाषा है।
अब नेताओं के पुरजोर स्वस्थ दिमाग का कुछ कमाल देखिए। यह बस एक दिन का उदाहरण है। संता-बंता, शिजोफ्रेनिया, पागल, मवाली, सड़कछाप, प्रोटोजोआ …, अचानक कई-कई शब्द आ गए हैं। भई, मेरा दिमाग तो इसका लोड ही नहीं ले पा रहा है।
मैं देख रहा हूं-नेता, दूसरे नेता की बीमारी तत्काल बता देता है। अगर डाक्टर के रूप में जदयू प्रवक्ता संजय सिंह की माने तो भाजपा के वरीय नेता सुशील कुमार मोदी को शिजोफ्रनिया है। यह ऐसी बीमारी है, जिसमें व्यक्ति की सोचने-समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। उनके अनुसार मोदी की बीमारी की छाप भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय पर भी है। मंगल पागल हो चुके हैं। उनका इलाज रांची में संभव है। भाजपा सांसद गिरिराज सिंह ने संजय के लिए कोईलवर मानसिक आरोग्यशाला का नाम सुझाया है। गिरिराज, लालू-नीतीश को संता-बंता कह रहे हैं। सुशील कुमार मोदी ने नीतीश कुमार को सबसे बड़ा विश्वासघाती व पलटीमार ठहराया है।
खैर, मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि धोखा के साथ सौदा जुड़ सकता है या नहीं? मैं समझता हूं कि राजनीति में धोखे का भी सौदा होता है। धोखा में ईमानदारी रहती है? नेता तो धोखे में बेईमानी करते हैं।
मैं अभी तक यही जानता था कि राजनीति की परिभाषा बस यहीं तक सीमित है कि इसमें कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। मगर सीन इसकी नई परिभाषा कुछ इस प्रकार बना रहा है-धोखा+सौदा=राजनीति। मेरे एक परिचित तो इस गुणसूत्र पर भड़क गए। बोले-राजनीति के लिए धोखा व सौदा एक ही है। अलग-अलग नहीं। और फिर यह कोई नई बात नहीं है, जो इतना फुदक रहे हो।
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