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यह नेताओं के बारे में नया ज्ञान है। जानिए। जब नेता जांचकर्ता होता है, तब यही होता है। देखिए …
ये संजय सिंह हैं। सत्ताधारी जदयू के प्रदेश प्रवक्ता हैं। तैंतीस लोगों को मारने और पचास से अधिक लोगों को घायल करने वाले पटना हादसे की जांच अभी चल ही रही है, लेकिन संजय सिंह की जांच पूरी हो गई। उनकी जांच का निष्कर्ष सुनिए-भाजपा के असामाजिक तत्वों ने अफवाह फैलाई। भीड़ बदहवास हो गई। लोग दबकर मर गए। घायल हुए। यह सब इसलिए कराया गया, ताकि भाजपा नेता हमारी लोकप्रिय सरकार को बदनाम कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंक सके।
मैं देख रहा हूं-फौरी जांच के मोर्चे पर संजय सिंह बहुत लेट चल रहे हैं। अपने ढेर सारे विपक्षी नेताओं ने तो हादसे के पंद्रह-बीस बाद ही अपनी जांच रिपोर्ट पेश कर दी थी। बता दिया था कि हादसे के लिए कौन-कौन जिम्मेदार हैं; किन कारणों से यह सबकुछ हो गया; कैसे यह हत्या है और कैसे बिहार में सरकार व प्रशासन नाम की चीज नहीं है? हां, संजय सिंह की जांच इस मामले में जरूर आगे है कि अगर अफवाह ही कारण रहा, तो इसे फैलाने वाले कौन थे?
यह सब क्या है? क्यों है? अब अपने गृह सचिव आमिर सुबहानी और एडीजी (मुख्यालय) गुप्तेश्वर पांडेय क्या करेंगे? दोनों बड़ी मशक्कत से जांच में जुटे हैं। जुटे रहें। नेता, हमेशा और हर मामले में सबसे आगे होता है। मैं समझता हूं शायद इसलिए वह नेता होता है।
मेरी राय में यह कुछ उसी तरह की बात है, जैसे बजट पर प्रतिक्रिया के दौरान होती है। बजट पेश करने वाली सरकार की पार्टी का नेता बजट को विकासोन्मुखी और गरीब पक्षी बताता ही है। इसी तरह विपक्ष बजट को गरीब विरोधी कहता ही है। नेता, बजट और हादसा या ऐसे किसी भी मौके या मामले में कोई फर्क नहीं मानता है। सत्ता पक्ष हां बोलता है, तो विपक्ष को ना बोलना ही है। कुछ बोलना है, तो बोल देना है। बोलते ही रहना है। यही तो लोकतंत्र है। लोकतंत्र में नेतागिरी है। लोकतंत्र की खूबसूरती है। अहा, हमने कितना सुंदर देश बनाया हुआ है। पता नहीं, इसमें अभी कितने चांद जडऩे बाकी हैं?
मेरे एक सहयोगी हादसे (भगदड़) के दूसरे दिन, राजधानी के उस बुजुर्ग व नामी डॉक्टर का संदेह बता रहे थे, जिनका बड़ा लम्बा राजनीतिक इतिहास है; संगठन के बड़े नेता भी रहे हैं। जनाब, संजय गांधी जैविक उद्यान में रोज टहलने जाते हैं। हां, तो उनको सुनिए। वे अपने जैसे हैसियत वालों के बीच बतिया रहे हैं-मुझे इसमें अल कायदा या इंडियन मुजाहिदीन का हाथ लगता है। अफवाह फैलाने में ये लोग ट्रेंड होते हैं। मुझे लगता है डॉक्टर साहब की जुबान से यह बात सिर्फ इसलिए निकली, चूंकि उनको संगठन की लाइन का ख्याल हमेशा रहता है। हद है। कहां भाजपा और कहां अल कायदा? ऐसा कहने वाली दोनों जुबानें जाहिर तौर पर चरम और विरोधाभास की गवाही हैं।
हम दवा घोटाले में नेताओं की यह अदा अभी-अभी देख चुके हैं। यह चल ही रही है। एक दोषी बताता है, तो दूसरा क्लीनचिट देता है। तो क्या यही राजनीति है? यह असलियत को भरमा कर असली कसूरवार या कारण को संरक्षित करने की कवायद नहीं मानी जाएगी?
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