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नेताओं की नजरें …

फंटूश
फंटूश
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मैं अभी तक बस दो प्रकार की नजर को जानता था-सीधी नजर और टेढ़ी नजर। इधर नजर, खासकर नेताओं की नजर, के बारे में नया ज्ञान हुआ है। आपसे शेयर करता हूं।

अब मैंने मान लिया है कि आदमी की तुलना में नेताओं के पास ढेर सारी नजरें होतीं हैं। ये तरह-तरह की होती हैं। इन नजरों को नजर आने का सिचुएशन होता है। एंगल होती है। यह समय व सुविधा से बदलती रहती हैं। एक नजर बहुत देर तक नजर नहीं आती है। नहीं टिकती है। नेता की एक नजर में कई- कई नजरें होतीं हैं। कुछ नजर कहीं ठहर जाती है, कुछ बेडरूम-बाथरूम तक जाती है। कुछ नजर के नाक व कान होते हैं। नजरें सूंघती हैं, सुनती भी हैं। कुछ नजर हमेशा कुछ  न कुछ खोजती रहती है। आजकल बिहार में ये तमाम तरह की नजरें नजर आ रहीं हैं। बिहार पर ढेर सारी नजरें टिकीं हुईं हैं। कुछ नजरें इन टिकी नजरों पर टिकीं हैं। कुछ नजरें इस तलाश पर टिकीं हैं कि कौन, किस पर नजर टिकाए है? जदयू की नजर है। भाजपा की नजर है। राजद की नजर है। कांग्रेस की नजर है। लोजपा की नजर है। वामपंथियों की नजर है। निर्दलीयों की नजर है। कुछ नजरें तो आंखों के रास्ते दिल में उतर चुकीं हैं। ज्यादातर नजरें, नजरों से मिल नहीं पा रही है। नजरों ने नजर मिलाने की हिम्मत खो दी है। नजरें, नजरों के सामने गिर गईं हैं। नजरों में पानी नहीं है। नजरों में संदेह है। कुछ नजरें बड़ी शातिर हैं। कुछ नजरें बिल्कुल बदल गईं हैं। नजर के सामने पडऩे पर नजर उठ नहीं रही है। इस सिचुएशन में भी बहुत सारी नजरों को बहुत कुछ बड़ा साफ-साफ नजर आ रहा है।

भाजपा की कुछ बड़ी नजरों को नजर आया है कि बिहार में जंगल राज दोबारा लौट रहा है। भाजपाई नजरों ने लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के राजपाट में जंगल राज को देखा था। यह जमाना बीत गया। खैर, अब भाजपाई नजरों से देखिए। यह पंद्रह दिन पहले का बिहार है। यहां सबकुछ ठीकठाक है। यानी, जब तक भाजपा सरकार में थी, यहां राम राज था। सुशासन था। न्याय के साथ विकास हो रहा था। कानून का राज था। बिहार, दुनिया को रास्ता दिखा रहा था। समावेशी विकास के बिहार माडल को दुनिया सलामी दे रही थी। बिहार का विकास दर देश के सभी विकसित राज्यों को पीछे छोड़े हुए था। यह पॉजीटिव नजर है। अब …? जैसे ही भाजपा, सरकार से अलग होती है, सुशासन टू का सिक्वेल, जंगल राज रिटन्र्स में तब्दील हो जाता है। यह क्या है? कौन सी नजर है? यह नजर वाजिब कहलाएगी?

मेरी राय में ऐसे ढेर सारे सवाल हैं। एकाध और इस प्रकार हैं-क्या भाजपा, सुशासन या रामराज की मुहर है? या वह अपने हिसाब से, अपनी सुविधा से रामराज का सर्टिफिकेट देती है? सुशील कुमार मोदी को नजर आया है कि चूंकि अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सारा ध्यान अपनी गद्दी की सुरक्षा में लगा है, इसलिए शासन गड़बड़ा गया है, बगहा पुलिस फायरिंग जैसी जघन्य वारदातें हो रहीं हैं। बगहा में पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई, तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय को नजर आया कि बिहार में जंगल राज लौट रहा है। सुशील कुमार मोदी की नजर ने उनको मधुबनी और फारबिसगंज गोलीकांड की भी याद दिलाई। मोदी ने इनके पीडि़तों के लिए भी मुआवजा मांगा है। जदयू के राष्टï्रीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी की नजर उस दौरान मोदी का राजपाट में मगन चेहरा देखा हुआ है। उन्होंने मोदी को याद कराया है कि उपमुख्यमंत्री रहते आपने यह मांग क्यों नहीं उठाई थी? क्यों नहीं गए थे मधुबनी और फारबिसगंज? फारबिसगंज फायरिंग को लेकर तो भाजपा की बड़ी बदनामी हुई थी। उसके एक नेता का कारनामा सामने आया था। क्या हुआ?

मैं नजरों के बहाने यह सब सुविधा की राजनीति मानता हूं। सरकार में रहे, तो वाह- वाह और अलग होते ही …? यह ठीक उसी तरह की सुविधा है, जो भाजपाइयों को जदयू द्वारा धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के अपनी सहूलियत से इस्तेमाल में नजर आती है।

भाजपा के गिरिराज सिंह की नजर ने मुख्यमंत्री का यह कारनामा तलाशा है कि उन्होंने नालंदा में सिर्फ अपने गांव का विकास किया। इस पैसे से समूचे जिले में विकास का काम हो सकता था। उनकी नजर में मुख्यमंत्री स्वार्थी हैं। विकास में स्वार्थ का एंगल …, गिरिराज की नजरें तो बड़ी दिलचस्प हैं।

एक और दिलचस्प नजर है। भाजपाई, अब भी सरकार की उपलब्धियों में खुद को बराबर का हिस्सेदार मान रहे हैं। कह रहे हैं कि चमकते बिहार में उनका भी उतना ही योगदान है, जितना जदयू का है। मुझे साफ नजर आ रहा है कि वे सिर्फ वाहवाही में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं, बदनामी में नहीं। मेरी नजर एक नया बवाल देख रही है। विधायक फंड कैसे खत्म हुआ? नंदकिशोर यादव इसके लिए मुख्यमंत्री को जिम्मेदार बता चुके हैं। अब मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि यह फंड सुशील कुमार मोदी और नंदकिशोर यादव के दबाव पर खत्म हुआ। मुख्यमंत्री तो इसे कायम रखना चाहते थे। मेरे पास ऐसी नजर नहीं है कि मैं इसकी सच्चाई को देख- जान सकूं। लेकिन यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि ये सब बातें तब क्यों नहीं उठीं थीं? तब, अभी जैसी देखने वाली-तलाशने वाली पारखी नजरें कहां थीं? देखिए, अभी और क्या-क्या नजर आता है?

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