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नरेंद्र मोदी ने बड़ी सहूलियत से बिहार की तबाही की वजह बता दी है। यह है-जातिवादी नेता, जातिवादी राजनीति। इस पर बड़ी प्रतिक्रिया है। होनी भी चाहिए।
कौन हैं जातिवादी नेता? उनकी पहचान संभव है? लालू प्रसाद ने तो सीधे कह दिया कि हमसे क्यों पूछते हैं। इसमें हम कहां हैं? लालू गलत हैं? फिर सही कौन है?
असल में यह सबकुछ वो करें तो रासलीला, और हम करें तो कैरेक्टर ढीला जैसा सिचुएशन है। एक संदर्भ देखिए। 1952 का पहला आम चुनाव था। तब बिहार में सवर्णों की तुलना में पिछड़ी जातियों की संख्या 39.30 फीसद अधिक थी। मगर पिछड़ी जातियों के सिर्फ 6 लोग संसद पहुंचे। ये क्या है? इससे भी बहुत पहले 1926 की कौंसिल, 1937 की प्रांतीय सभा, 1938 के जिला परिषद चुनाव …, उन स्थितियों की कमी है, जिससे प्रेरित होकर; ताकत पाकर यह व्यावहारिक नारा गूंजा कि वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा-नहीं चलेगा; पिछड़ा पावै सौ में साठ। तो क्या यह नारा गलत था या है? मोदी जी इसे किस रूप में परिभाषित करेंगे? देश -समाज की जातीयता और कमोबेश इसी से जुड़ती धर्मांधता छुपी है?
मैंने कुछ पुराने दस्तावेज पलटे हैं। आप भी जानिए। 1967 का दौर सत्ता में पिछड़ों की भागीदारी का विस्फोट वाला कालखंड है। विधानसभा में पिछड़ी जाति के 82 लोग पहुंचे और 13 सांसद बने। 9 फरवरी 1968 को बीपी मंडल के नेतृत्व में पहली बार पिछड़ों की सरकार बनी। गैर कांग्रेसवाद की दौर में पिछड़ी जातियों के सांसद बढ़े। 1967, 1977 तथा 1989 के चुनाव परिणाम इसके गवाह हैं। लेकिन इससे पहले …? जाति आधारित राजनीति पर चर्चा के दौरान अगर ईमानदारी से इन स्थितियों को भी ध्यान में रखा जाएगा, तो मेरी राय में बहुत मायनों में यह जागरूकता की शक्ल में दिखेगा। किंतु ऐसी निरपेक्षता की हिम्मत कितनों में है?
बेशक, देश के पैमाने पर राजनीति में जाति, गोलबंदी का सशक्त जरिया रहा है। यह अस्वाभाविक भी नहीं। राजनीतिक पार्टियां जातीय जमीन से खुराक पाकर ही फलती-फूलती रहीं हैं। लोगों ने अपने-अपने नायक तलाशे। गुलदस्ते बने और एक बिल्कुल स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत जाति दीर्घकालीन राजनीति बन गई। जाति और राजनीति में अन्योन्याश्रय संबंध है। जब सामाजिक संगठन का आधार जाति है, तो फिर इससे राजनीति कैसे अछूती रहेगी? हां, यह भी सही है कि जाति की राजनीति और राजनीति में जाति का बुनियादी फर्क भुला दिया गया है। लेकिन बस यही एक स्थिति स्वर्णिम राज्य रहे बिहार की तबाही का कारण नहीं हो सकता है। फिर, धर्म भी बहस के दायरे में आने की दरकार रखता है।
बिहार तो जाति तोड़ो-जनेऊ तोड़ो आंदोलन का उत्कट सहभागी रहा है। हां, कई मौकों पर उसका मध्ययुगीन मिजाज भी दिखा। अपनी दायरे की राजनीति में जाति का इस्तेमाल करने के लिए बिहार खुद और इकलौता कसूरवार नहीं है। उसको जिम्मेदार बताने के क्रम में कुछ सवाल, ईमानदार जवाब का तगादा करते हैं। ये इस प्रकार हैं-चुनाव में जाति को चार्जर किसने बनाया? समरस समाज का नारा कहां से और क्यूं आया? क्यों हर चुनाव के बाद खासकर जीतने वालों का यह बयान आता है कि विकास के मुद्दे पर जाति भारी रही? क्या पहले जैसा जातीय कार्ड अब कारगर है? कौन सी पार्टी उम्मीदवारी तय करते वक्त अपने जातीय समीकरण के दायरे से बाहर निकलने की हिम्मत दिखाती है? पार्टियां तो आफ दि रिकार्ड में यह बात भी फ्लैश करा देती हैं कि उसने किस -किस जाति को कितनी- कितनी सीटें दी हैं? लोकतंत्र का यह नया नारा कहां से आया कि अब राजा, रानी के कोख से नहीं, बल्कि बैलेट बाक्स से पैदा होता है? नौकरी का पता नहीं मगर आरक्षण का खेल क्यों जारी है? क्या ये सवाल बस बिहार की माटी की उपज हैं? ढेर सारे सवाल हैं। जातिवादी नेता पहचाने जाएंगे?
और नेता ही क्यों, जो स्थिति है, उसमें तो यह तय करना मुश्किल है कि जाति के मोर्चे पर कौन कम कसूरवार है-नेता कि जनता? जनता तो अपनी जाति के अपराधी को माफ कर देती है। इस पर कौन बहस करेगा? देश के गांव गवाह हैं कि विकास की भी जाति होती है। बाबू साहब का गांव और दलितों की बस्ती के फर्क से इसे समझा जा सकता है।
एक बड़ा संकट जरूर है। अगर यह सब जागरूकता का पर्याय है, तो यह भी सही बात है कि समग्रता में इसका फायदा समाज को नहीं है। हां, पूरी बिरादरी की इमोशनल ब्लैकमेलिंग के बूते एकाध लोग कुर्सी के और करीब आ जाते हैं; बाद के दिनों में उनका खानदान क्रीमिलेयर की औकात पाता है। बहरहाल, सबको बस बिहारी कहलाने की कामना रखनी होगी। इसी तरह का आचार-व्यवहार होना चाहिये। वरना …!
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