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सत्ता ही सत्य है …

फंटूश
फंटूश
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यकीन मानिए, बहुत दिन बाद मुझे बहुत अच्छा लगा था। मैं मीसा भारती को देख, सुन रहा था। वह अपने रूठे चाचा (रामकृपाल यादव) को मनाने उनके घर पर थीं। भावुक थीं। मुझे लगा कि अगर कुछ और लाइनें बोलतीं, तो रो देतीं। उनकी आवाज भर्रा गई थी। यही हाल का रामकृपाल का भी था। वे भी बस रोये नहीं। भतीजी-बेटी, इस्तीफा बोलने के दौरान उनके होठ कांप रहे थे। आंखों की कोर में दिखने लायक नमी थी।

मुझे याद नहीं है कि मैंने राजनीति में गुस्सा और भावना की ऐसी कशमकश पहले कब देखी थी? अभी की दौर में जब राजनीति में ऐसे मौकों पर एक-दूसरे के लिए बस गालियां होती हैं, चाचा-भतीजी वाले शब्द मुझे रोमांचित करते रहे। मैं खुश था कि चलो, राजनीति में भावनाएं जिंदा भी हैं। मैं, महान भारत का एक नागरिक, नेता द्वारा फिर ठगा गया हूं। चचा रामकृपाल कह रहे हैं-मेरा इमोशनल अत्याचार हुआ है। यह सब राजनीतिक स्टंट था। भतीजी बोल रही है-मुझे चाचा जी से ऐसी उम्मीद नहीं थी। उनसे राजनीतिक रिश्ता खत्म।

चाचा और भतीजी, दोनों में कौन कितना सही हैं, इस बहस में पड़े बिना मैंने भी मान लिया है कि वाकई, सत्ता ही सत्य है, बाकी सब झूठ। मुझे आजकल नेता के बारे में हर पल नया-नया ज्ञान हो रहा है। कई बार तो यह ओवरफ्लो कर जा रहा है। अहा, अपने नेता कितने गुणवान हैं; बहुआयामी व्यक्तितत्व के धारक हैं।

नेता ने अपना यह गुण खुलेआम कर दिया है कि वह सबसे बड़ा मौसम विज्ञानी होता है। उसके आगे मौसम विभाग, उसके तंत्र फेल हैं। मैं रामलषण राम रमण को सुन रहा था। आप भी सुनिए-बादल देखकर बरसात का अंदाज लग जाता है। रमण जी, राजद के विधायक हैं (बेहतर शब्द थे)। उस दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंच पर थे। वे बिहार के उच्च शिक्षा मंत्री भी थे। मुझे विधानसभा में उनका एक शेर याद आ रहा है-रम पीऊं या ह्विस्की, बात करूं मैं किसकी -किसकी? मेरी राय में सर जी द्वंद्व को जीने वाले हैं। उनका द्वंद्व अभी खुले में भी था। पहले वे राजद के उन तेरह विधायकों में थे, जिनको विधानसभा में अलग ग्रुप में बैठने की मान्यता मिली। फिर वे लालू जी के साथ हो गए और अब जदयू में आ ही गए हैं।

बात बस रमण जी की नहीं है। कुछ दिन पहले एक बड़े नेताजी से मुलाकात हुई। वे टिकट देने वाली नई और बड़ी पार्टी की तलाश में थे। मूड में थे। बेहिचक शुरू हो गए-दिमाग में तीन तरह का रिकार्ड फिट कर लिया है। कांग्रेस में जाने के लिए ये बोलूंगा, भाजपा के लिए ये और जदयू के लिए ये-ये …! उन्होंने विस्तार से अपना रिकार्ड सुनाया भी। तर्क बड़े धांसू थे। इसी तार्किक अंदाज में उन्होंने पुराने घर को छोडऩे के कारण भी समझाए। वे मजे में एक जगह सेट हो चुके हैं। उम्मीदवार बन चुके हैं।

अपने नेताओं ने जनता को बताया है कि कुर्सी पर बैठकर ही सेवा हो सकती है। मैं देख रहा हूं-आजकल ऐसे नेताओं की टोली बहुत व्यस्त है। नए-नए नारे रट रही है। नई दलीय लाईन और उसके पुरोधाओं को समझ रही है। दिमाग से लेकर घर तक से पुरानी पार्टी-पुराने नेताओं को मिटा रही है। डायरेक्ट्री में नए फोन नंबर डाल रही है। जहां-तहां लगे फोटो बदल रही है। घर के लोगों के भी दिल बदल रहे हैं। वे मन को समझा रहे हैं। अक्सर कंफ्यूज कर जाते हैं। खैर, सभी पुराने खिलाड़ी हैं। जनता को जीत ही लेंगे।

मेरी समझ से नेता ही यह सब कर सकता है। राजनीति की अस्थायी दोस्ती-दुश्मनी वाली परिभाषा अरसे से लगभग प्रत्येक स्तर पर कबूली जा चुकी है। अबकी रिकार्ड मौकापरस्ती ने राजनीतिक अराजकता की नौबत दिखायी है। सुबह की दोस्ती दोपहर की दुश्मनी में बदली, बदल रही है। कई तो ऐसे हैं, जो शाम या रात वाला अपना ठिकाना बताने की स्थिति में नहीं हैं। एकसाथ उनकी बात कई दलों में चल रही है। पार्टी-झंडा बदल नई आस्था साबित करने की होड़ में शामिल होने वालों ने मालिक जनता का ख्याल रखा है? वे तो यह भी नहीं सोच रहे कि मैं उसी पाले में जा रहा हूं, जिसकी घोर आलोचना ने मुझे संसद पहुंचाया था। लोग क्या कहेंगे? नेता नहीं सोचता है। लोक- लाज आदमी के लिए है। मेंढक तराजू पर नहीं तौले जा सकते हैं। सत्ता के तराजू ने तो नेताओं को तौल दिया है।

दरअसल, यह राजनीति में सिद्धांत, प्रतिबद्धता, दर्शन की रोज पतली होती लकीर और लीडरशिप की चमक खोने का दौर है। सेवा भाव से इतर पेशा बनी राजनीति व्यक्तिगत स्वार्थ का माध्यम बनी है। नेताओं का आयात -निर्यात गवाही देता है कि पार्टियों को खुद पर भरोसा नहीं है।

ये मतदाताओं से सजा पायेंगे या फिर से जीत की मस्ती लूटेंगे? भाई लोग तो अपने नए नाम-ठिकाना व नारों की बदौलत जनता को आखिरकार समझा, पटा लेते हैं। तो क्या अपने महान भारत में सत्ता ही सत्य है, की अवधारणा जिंदा रहेगी? कब तक?

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