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जीवन की मूलभूत नैसर्गिक जरूरतों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी, कपड़ा और मकान होता हैं। जिसमें शिक्षा और कृषि का दायरा अगर जीवन में ऊंचे ओहदे का है, तो फिर जीवन में अन्य चीजों की पूर्ति की जा सकती है। भोजन और स्वास्थ्य की आवयश्कता का निर्वहन प्रारंभिक काल में बच्चों के लिए इंतजाम उसके माता-पिता करते हैं, लेकिन शिक्षा ही ऐसा साधन है, जो बच्चों को जीवन में किसी अन्य चीजों को साध्य बनाने का अवसर प्रदान करती है। शिक्षा के माध्यम से ही सामाजिकता का पाठ पढ़ता है और अगर वह सरकारी नौकरी के योग्य नहीं बनता, तो वर्तमान दौर में हमारे देश में एक चलन जोर पकड़ रहा हैं कि अच्छी शिक्षा प्राप्तकर युवा खेती-किसानी की ओर अग्रसर हों। मगर वर्तमान दौर की शिक्षा प्रणाली की बात हो, तो उस परिवेश में दिखता है कि भारतीय परिदृष्य में शिक्षा का पैमाना दुनिया में सबसे गर्त में जाता दिख रहा है।
शिक्षा न रोजगार सृजन का साधन बन पा रहा है, न ही शिक्षा में संस्कारों का कोई उचित साक्ष्य दृष्टिकोण दिखता है। शिक्षा का भविष्य मात्र डिग्री धारकता का प्रमाण दृष्टिगोचर हो रहा है। इसका प्रमाण यह है कि यूपी बोर्ड की जो परीक्षा कभी एशिया की सबसे कठिन परीक्षा लेने वाली संस्था कहलाती थी, वह अभी शिक्षा माफियों के दुष्चक्र में अटककर सर्टिफिकेट बांटने तक सीमित दिख रही है। उत्तर प्रदेश समेत अनेक राज्यों में शिक्षा के गिरते स्तर का कारण शिक्षा क्षेत्र में नेताओं का आवागमन है। उत्तर प्रदेश जैसे सूबे में रसूखदार नेताओं के स्कूलों की भरमार है।
इसके साथ आज देश की रीढ़ कृषि और भविष्य निर्माण करने वाली शिक्षा व्यवस्था दोनों की स्थिति नाजुक हैं। एक ओर देश का किसान बेबस और लाचार है, तो दूसरी ओर शिक्षा व्यवस्था का भी बेड़ा गर्क है। ऐसे में देश की तरक्की की बात कैसे हो सकती है? देश की प्रगति के निर्धारक किसान और युवा पीढ़ी होती है। देश की मलिन हालत में दोनों की स्थिति बदतर होती जा रही है। किसानों और छात्रों की आत्महत्या का दौर बदस्तूर जारी है। फिर कैसे कहा जाए कि देश आर्थिक प्रगति की तरफ गतिमान है? देश का अन्नदाता जो दूसरों का पेट सदियों से भरता आया है, अगर उसके परिवार को दो वक्त की रोटियां नहीं मिल रहीं, फिर कैसी व्यवस्था और आर्थिक-सामाजिक प्रगति व उन्नति का डिंढोरा देश में पीटा जाता रहा है? आजादी के सात दशक बाद भी किसानों की समस्याएं कम होती नहीं दिखती। नही तो आए दिन कहीं तमिलनाडु के किसान जंतर-मंतर पर, तो कहीं महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के किसान सड़कों पर अपनी ही वस्तुओं की बर्बादी की होली खेलते नजर नहीं आते? अगर आजादी के 70 वर्षों के बाद भी किसानों की कुंडली पर हुक्मरान बैठे हुए हैं, तो उनको किसानों की स्थिति में सुधार के लिए भागीरथी प्रयास करना चाहिए। रही बात युवाओं का कृषि की तरफ रुझान नहीं होने की, तो उसके भी साफ कारण हैं। जब सरकारें खेती को लाभ का धंधा नहीं बना सकीं, फिर युवा पीढ़ी लाखों रुपये फूंककर खेती की तरफ क्यों आकर्षित होगी? यह हमारी लोकतान्त्रिक सरकारों को भी सोचना चाहिए।
देश की शिक्षा व्यवस्था चरमरा चुकी है, जिससे युवाओं को मुकम्मल भविष्य नहीं मिल पा रहा है। इस वजह से वे फिर भी कुछ हद तक खेती की तरफ ही कदम बढाने को विवश हैं। ऐसे में खेती अगर लाभ का धंधा नहीं बन पा रही है, तो इससे देश के अन्नदाता का वर्तमान और भविष्य दोनों प्रभावित हो रहा है। अगर सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हारवेस्टिंग इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी की रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष लगभग 92 हजार करोड़ का अनाज सरकार खुद भंडारण क्षमता नहीं होने के कारण बर्बाद कर देती है, फिर सरकारें अधिक उत्पादन के लिए किसानों को विवश क्यों करती हैं। वर्तमान दौर में अगर सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान मात्र 14-15 प्रतिशत है, तो उसको बढ़ाने के प्रयत्न के साथ कर्जमाफी रूपी फौरी राहत और चुनावी फायदों के तरीकों को छोड़कर हुक्मरानों को किसानों की समस्या पर स्थायी मरहम लगाने की कोशिश करनी होगी। इसके साथ शिक्षा जो जीवन को निखारने का काम करती है, उससे नेताओं और सामाजिक ठेकेदारों को दूर रखना होगा। तभी कुछ सकारात्मक पहलू शिक्षा व्यवस्था के दृष्टिमान हो सकते हैं।
शिक्षा की बदहाली का अंदाजे बयां इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में साक्षरता दर में बढ़ोतरी तो दर्ज हो रही है। परन्तु गुणावत्ता और रोजगारपरक शिक्षा व्यवस्था समाज से दरकिनार होती जा रही है। फिर सरकारें कहती हैं कि युवाओं को उन्नत कृषि की ओर अग्रसर होना चाहिए, लेकिन वास्तव में उसके अनुकूल माहौल भी सरकारें उपलब्ध नहीं करा पाती। फिर ऐसे में देश का भविष्य और अन्नदाता किधर रुख करे? बड़े-बड़े सरकारी दावों और विज्ञापनों के बाद वर्तमान दौर में सरकारी स्कूलों के बच्चों के ज्ञान स्तर से भारतीय शिक्षा व्यवस्था की कलई खुलती प्रतीत होती है। सरकारी आंकड़ों के खेल को देखें, तो पता चलता है कि प्राइमरी और सेकेंड्री स्तर पर स्कूलों में वर्तमान परिस्थिति में 10 लाख के करीब पद खाली पड़े हैं। देश के लगभग 37 फीसदी स्कूलों में एक भी भाषिक अध्यापक नहीं है। ऐसे में देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार का भगीरथी प्रयास कैसे हो सकता है? इसके इतर देश के भीतर जो शिक्षक हैं, वे आंकड़ों की लड़ाई में गौर किए जाएं, तो पांच में से मात्र एक अध्यापक बमुश्किल प्रशिक्षित मिलते हैं।
उधर, किसानों की बदहाली और आत्महत्या का दौर जारी है, जिसका अंदाजा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आकंड़े से लगाया जा सकता हैं. जिसमें मात्र मध्यप्रदेश में पिछले 16 वर्षों में लग़भग 21,000 किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं। जिसका कारण फ़सल बर्बाद होना और उचित दाम न मिलना बताया जाता है. फिर ऐसे में पांच बार से लगातार कृषि कर्मण पुरष्कार सूबे द्वारा हथियाने का क्या अर्थ? किसानों की आत्महत्या का यही आंकड़ा पूरे देश का है।
ऐसे में देश को आगे बढ़ाने की नींव खोखली मामूल पड़ती है। अगर देश के भीतर जिनके ऊपर देश का भविष्य बनाने और नींव तैयार करने की जिम्मेदारी है, वे ही न ठीक से प्रशिक्षित हैं और शिक्षकों की संख्या बहुत कम है, तो फिर देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार की बाट कैसे जोही जा सकती है? कुछ समय पूर्व आए एसोचैम के एक सर्वे के अनुसार देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़कर निकलने वाले लगभग 85 फीसदी छात्र अगर अपनी योग्यता सिद्ध करने में सिद्धहस्त नहीं होते, तो यह हमारे रहनुमाओं और शिक्षण व्यवस्था को सोचना चाहिए। देश के कर्णधार को कैसी शिक्षा मुहैया करवाने पर बल दे रहें हैं, जिससे उनका कोई भला नहीं हो पा रहा है। मात्र कागजों पर शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के स्लोगन दिए जाते रहे हैं।
आगामी सत्र से उत्तर प्रदेश सरकार नकल विरोधी उसी अध्यादेश को लाना चाहती है, जो 1992 के दौर में कल्याण सिंह समय में लाया गया था। उसको लागू करने से पहले शिक्षा तंत्र को दिवालियापन से बचाना होगा, तभी नकल से आजादी मिल सकती है। साथ में देश में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की बाट जोहना होगा। इसके साथ कृषि को भी लाभ का धंधा बनाना होगा। तभी युवा इस ओर आने को तैयार होंगे, नहीं तो देश में ऐसे ही शिक्षा और कृषि की मलिन हालत बनी रहेगी और देश के अन्नदाता व युवाओं का भविष्य बेहाल मिलेगा।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 2016 की असर रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण सरकारी स्कूलों के आठवीं के छात्रों में से सिर्फ 40 प्रतिशत छात्र गणित के भाग सवाल को हल कर पाते हैं। इसके साथ 2016 में आठवीं के 70 प्रतिशत छात्र हैं, जो दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सकते हैं। जो आंकडा 2012 में 73.4 फीसदी था। यूडीआईएसई की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 97923 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में मात्र एक शिक्षक हैं। इस सूची में मध्यप्रदेश 18190 स्कूलों के साथ पहले स्थान पर है। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत 30 से 35 छात्रों पर एक शिक्षक होना चाहिए। अगर देश में शिक्षा की यह स्थिति है, फिर देश की उन्नति में युवा कहां है? एक ओर किसान देश में बेहाल है, फिर वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा कैसे उपलब्ध करा सकता है? एक तथ्य यह भी है कि सरकारी स्कूलों की अधोसंरचना और ख़ामियों से ऊबकर जनता ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से दूर रखना उचित समझा हो। तो ऐसे में सरकारों को सरकारी स्कूलों की मूलभूत सुविधाओं में बढ़ोतरी की ज़हमत जोहना चाहिए। फिर जिस हिसाब से देश में शिक्षा प्रणाली गर्त में जाती दिख रही है, वह बताती है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली को सिंगापुर और फिनलैंड के नजदीक भटकने में वर्षों लगेंगे।
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