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आज हमारे देश की जनसंख्या में एक बड़ी हिस्सेदारी युवा वर्ग की है। उसी समाज का युवा वर्ग अगर नशे की गिरफ्त में धंसता जा रहा है, तो इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश किस दोराहे पर खड़ा है। एक तरफ गुटखा पान-मसाला और धूम्रपान में उपयोग किया जाने वाला तंबाकू जानलेवा साबित हो रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ हमारी सरकारें कोरे कागज़ पर चुनावी चाल रचने के बाद समाज सुधार के मुद्दे से इतिश्री कर लेती हैं।
इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंजाब में सत्ता में आने के पूर्व कांग्रेस ने दावा किया था कि हरित क्रांति के जनक राज्य को नशे की चपेट से उबारने का भागीरथी प्रयास करेंगे। वर्तमान स्थिति को देखा जाए, तो यह मात्र चुनावी चोचलेबाजी का हश्र हुआ। स्थिति वहीं, ढाक के तीन पात। पंजाब में सत्ता मिलने के बाद राजस्व की दुहाई देकर तम्बाकू जनित उत्पादों पर कोई कार्रवाई होती नहीं दिखी। यही सूरतेहाल केंद्र और अन्य सूबों का भी है।
तंबाकू उत्पादों से देश में मौत के मुंह में समाने वालों की तादाद बढ़ रही है, लेकिन राजस्व की फ़िक्रमंद सरकारें आँखें मूंदकर चल रही हैं। क्या सरकार की यही सामाजिक सरोकार की जिम्मेदारी है? देश में प्रति चार मिनट में अगर एक व्यक्ति काल के गाल में तम्बाकू जनित रोग मुँह के कैंसर की वजह से समा रहा है, तो लोगों को अपनी जिंदगी और परिवार के प्रति सचेत होने के साथ ही सरकार को भी अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझना चाहिए।
एक ओर मध्य प्रदेश सरकार मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार 200 करोड़ टैक्स की आमदनी के लिए यह भूल जाती है कि तंबाकू और उसके उत्पाद से होने वाली बीमारियों पर प्रदेश के लोग हर वर्ष 1373 करोड़ रुपये बहा देते है, फिर ऐसी कमाई का क्या लाभ? सुप्रीम कोर्ट और राज्य सरकार द्वारा स्कूलों, कार्यालयों को तंबाकू व ध्रूमपान मुक्त बनाने के उद्देश्य से तंबाकू उत्पादन अधिनियम 2003 के तहत कड़े प्रतिबंधात्मक आदेश जारी किए गए थे। इसका मुख्य उद्देश्य तंबाकू युक्त गुटखा के विक्रय एवं उपयोग तथा सार्वजनिक स्कूलों पर ध्रूमपान को प्रतिबंधित करना था। आज भी शैक्षणिक संस्थानों के 100 मीटर के दायरे में मध्यप्रदेश में तंबाकू उत्पाद की बिक्री तथा कार्यालयों में इनका उपयोग बेझिझक हो रहा है।
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, भारत में करीब 25 करोड़ लोग गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का के जरिए तंबाकू का सेवन करते हैं। इसके कारण हर घंटे औसतन 114 और 24 घंटे में 2800 लोग तंबाकू उत्पाद से उत्पन्न कैंसर से दम तोड़ते हैं। मध्यप्रदेश में 40 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में तंबाकू का उपयोग करते हैं। धुआं रहित तंबाकू में तीन हजार तरह के केमिकल होते हैं, जो 29 तरह के कैंसर पैदा करते हैं। सिर्फ 18 फीसदी लोगों को मध्यप्रदेश में पता है कि ध्रूमपान को लेकर कोई कानून भी है। ऐसे में कैसे समझें कि सरकार लोगों को तंबाकू जैसे उत्पादों की हानियों से अवगत करा पाई है, जब हर दिन 300 से ज्यादा बच्चे केवल मध्यप्रदेश में तंबाकू खाना शुरू करते हैं। हमारा देश किस स्थिति की ओर जा रहा है, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक, पुरुषों में 50 प्रतिशत और महिलाओं में 25 फीसदी कैंसर की वजह तंबाकू है। मध्यय प्रदेश में तंबाकू जनित रोगों से प्रतिवर्ष लगभग 15 हजार मौत होती है, फिर देशभर का आंकड़ा और भी चौंकाने वाला होगा। स्मोकलेस टोबैको एंड पब्लिक हेल्थ इन इंडिया व ग्लोबल यूथ टोबैको सर्वे-2017 के मुताबिक, प्रति घंटे 15 व्यक्ति मुँह के कैंसर की वजह से जान गंवाते हैं। अगर इसे प्रति वर्ष में बदल दिया जाए, तो यह आंकड़ा एक लाख तीस हजार के करीब पहुँच जाता है।
अगर उत्तर प्रदेश की सरकार विधानसभा में गुटखा, पान-मसाले के प्रयोग को प्रतिबंधित कर सकती है, फ़िर अन्य सरकारें राजस्व के नाम पर देश की आवाम की जान के साथ कब तक समझौता करती रहेंगी? अगर भारत तंबाकू उत्पादन में तीसरे और उपयोग में अब पहले स्थान पर आ चुका है, फिर मात्र तंबाकू निषेध दिवस के रूप में खानापूर्ति क्यों की जा रही है? विश्व परिदृश्य में मुँह के कैंसर की वजह से 6 लाख 52 हज़ार से अधिक मौतों में अगर भारत की हिस्सेदारी लगभग एक लाख 30 हज़ार के क़रीब है, तो सरकार को सोचना होगा कि उसके द्वारा दी गई छोटी सी वैधानिक चेतावनी मात्र दिखावा बनकर रह गई है। सरकारों को तम्बाकू के बढ़ते दुष्परिणामों के प्रति सचेत करने के लिए सफल नीति के क्रियान्वयन की सख़्त आवश्यकता है, तभी इन मौतों पर अंकुश लगाया जा सकता है।
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