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भाई-बहनों के अटूट प्रेम को समर्पित रक्षा बंधन का पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। उत्तरी भारत में अपार श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाने वाला यह पर्व जहां सदियों से चला आ रहा है, तो वहीं इसका तात्कालिक महत्व के साथ पौराणिक महत्व भी है। यह त्योहार जहां रक्षा का संकल्प लेने का दिन होता है, वहीं भाई-बहन के बीच आपसी स्नेह और प्यार में बढ़ोतरी का पर्व भी होता है।
इस दिन जब बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रेशम के धागों से सजी हुई राखी बांधती हैं, तो इससे भाइयों का बहनों की रक्षा करने का भाव अपने आप बढ़ जाता है। रक्षाबंधन का उल्लेख हमारी पौराणिक गाथाओं में होने के साथ यह त्योहार अन्य सामाजिक सरोकार का महत्व भी रखता है। यह पर्व जहां भाई-बहनों के बीच स्नेह, प्रेम, विश्वास को बढ़ाता है, वहीं कुछ सामाजिक संकेत देने का कार्य भी करता है।
इस त्योहार में भाई जहां एक ओर उपहार स्वरूप वस्तु भेंटकर अपने प्रेम को प्रदर्षित करता है, वहीं रक्षा सूत्र को बांधती हुई बहन भाई की सलामती और जीवन में उन्नति के शिखर पर बढ़ने की कामना करती है। विश्वास और श्रद्धा पर आधारित यह पर्व सदियों से अपनी मूलभावना को लेकर चल रहा है। हमारा देश त्योहारों की धरती है, इस धरा पर हर पर्व का अपना खास सांस्कृतिक महत्व है।
उसी सांस्कृतिक धरोहर का निर्वहन रक्षा पर्व के रूप में किया जाता है। यह एक ऐसा पर्व है, जो रिश्तों की गहराइयों को महसूस कराता है। रक्षाबंधन का पर्व सामाजिक संदेश के साथ पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देता है, क्योंकि बहुत से लोग वृक्षों को राखी बांधकर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक करने का प्रयास करते हैं। इस पर्व की महत्वा का पता इसी बात से चलता है कि भाई या बहन किसी भी विकट स्थिति में क्यों न हों, लेकिन आपसी स्नेह और प्रेम के इस पर्व के लिए समय निकाल लेते हैं।
हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार इस पर्व में रक्षा सूत्र बांधने के वक्त भाइयों द्वारा बहनों को रक्षा का वचन दिया जाता है कि उनकी बहन जब भी किसी मुसीबत में होगी, वे उसकी रक्षा करेंगे। यह प्रेम का एक ऐसा धागा है, जो होता मामूली सा है, लेकिन उसके गूढ़ में बहुत ही अर्थ की बातें छुपी होती हैं। यह रक्षा सूत्र रेशम की छोटी सी डोरी होती है। वह दिखने में भले ही छोटी होती है, लेकिन यह सूत्र विपत्ति और आपदा में भाइयों की रक्षा करता है व शत्रुओं पर विजय दिलाता है। ऐसी अपने हिंदू धर्म की मान्यताएं हैं।
हमारे धर्म में प्रत्येक संस्कार में हाथ पर कलावा बांधने का विधान है। उसमें से राखी का पवित्र धागा बहनों और भाइयों के बीच आपसी प्रेम और भावनात्मक एकता को बढ़ाने का पर्व है। रक्षाबंधन का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व के इतर पर्यावरण से संबंधित महत्व है, तभी तो पुरातन काल में वृ़क्षों को रक्षा सूत्र बांधकर उसको बचाने की परंपरा रही है, जो आज भी समाज में गतिमान और प्रगतिशील है।
रक्षाबंधन का महत्व हमारी धार्मिक कथाओं में भी सुनने को मिलता है। महाभारत में रक्षा सूत्र के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। महाभारत में उल्लेख के अनुसार जब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि मैं सभी कष्टों और दुविधाओं रूपी भंवर से किनारे कैसे निकल सकता हूं, तो श्रीकृष्ण ने उन्हें और उनकी सेना को राखी का पर्व मनाने की सलाह दी।
महाभारत में रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक किस्सा भी काफी प्रचलित है कि जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया था, उस वक्त श्रीकृष्ण की तर्जनी पर चोट आ गई थी। ऐसे में द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर उनकी तर्जनी पर पट्टी बांध दी थी। उसके बाद श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के चीर-हरण के समय द्रौपदी की रक्षा करके भाई का धर्म निभाया था।
इसके साथ इस पर्व का ऐतिहासिक महत्व है। ऐतिहासिक कथाओं के मुताबिक, चित्तौड़ की रानी कर्णावती ने अपनी रक्षा के लिए मुगल शासक हुमायूं को राखी भेजकर मदद की पुकार की थी। इससे राखी के एक अलग महत्व पर भी प्रकाश पड़ता है कि इस पर्व के माध्यम से धार्मिक सद्भाव की जड़ें भी समाज में प्रगाढ़ होती हैं। इस पर्व के कई ऐतिहासिक और धार्मिक प्रसंग यह सिद्ध करते हैं कि यह पर्व जहां भाई-बहन के बीच स्नेह, प्रेम और विश्वास को प्रगाढ़ करते है, वहीं सामाजिकता से जुड़े भी कई संदेश देता है।
वर्तमान दौर में जब आपसी प्रेम और भाईचारे की डोर समाज में कमजोर हो रही है। स्त्री समाज पर अत्याचार का दौर तेजी से बढ़ रहा है। उस समय में रक्षाबंधन पर्व के मूलभाव से समाज को कुछ सोचने-समझने की कोशिश करनी चाहिए। मात्र परंपरा और प्रथा के नाम पर इन पर्वों को ढोने की परंपरा को त्यागना होगा। जिस उद्देश्य के साथ यह त्योहार पितृसत्तात्मक समाज को स्त्रियों की सुरक्षा का निवर्हन करने की सीख देता है, उसका निहितार्थ समाज में झलकना चाहिए।
आज समाज में अपनी बहनों के साथ तो भाई रक्षा का संकल्प लेते हैं, लेकिन अपने आस-पड़ोस की माताओं-बहनों के साथ उस इज्जत और सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते, जो वे अपनी परिवार में करते हैं। समाज को ऐसी हीनभावना को त्यागना होगा, तभी इस रक्षा पर्व का सही अर्थ दृष्टिगोचर हो सकेगा और पर्व की सार्थकता सिद्ध होगी। इस रक्षा बंधन के पर्व से ही अगर पितृसत्तात्मक सोच में महिला अस्मिता और सशक्तीकरण के लिए कुछ बदलाव दिखा, तो इस पर्व की पवित्रता और प्रगाढ़ होगी।
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