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सियासत में कोई किसी का स्थायी मित्र और शत्रु नहीं होता। इसके साथ जनता-जर्नादन के मताधिकारों की उपेक्षाकर अपनी सियासी फितरत को चमकाना ही सियासत की पहली साधना होती है। यह बीते दिनों हुए नीतीश कुमार और भाजपा के गठबंधन ने साबित कर दिया है। बिहार में पिछले कुछ दिनों से कुछ ऐसी ही राजनीतिक बिसात का शतरंजी मोहरा रचा जा रहा था, जिससे वहां की राजनीतिक पृष्ठभूमि में गहरा असर देखने को मिले। सो वह असर इस रूप में दिखा कि जो महागठबंधन बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त बड़ी-बड़ी बतोलेबाजी कर रहा था, उसी का दम निकल गया। पिछले दिनों बिहार में हुई राजनीतिक नौटंकी में जहां नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया, तो उसके बाद उनके पिछले कार्यकाल की सहयोगी रही भाजपा झट से उनका दामन थाम बिहार में भी अपने कांग्रेस मुक्त भारत को धार देने की फितरत पूरी करती हुई नजर आती दिखी।
लोकतांत्रिक परिवेश में जनता-जर्नादन के मतों का अपना एक अलग महत्व और आधार होता है, लेकिन बिहार में हुई इस राजनीतिक नौटंकी के बाद कई सवाल उठते हैं। क्या जनता की महत्वाकांक्षाओं और उसके इरादों की लोकतंत्र में कोई कीमत नहीं रह गई है? जब पिछले 17 वर्षों के कार्यकाल के बाद बिहार की जनता ने बिहार में सुशासन बाबू की सरकार किसी दूसरे दल के साथ देखने के लिए मत दिया। फिर आखिर बिहार में भाजपा और जदयू के गठबंधन से उसकी महत्वाकांक्षाओं के साथ राजनीतिक हित साधने का कार्य क्यों किया जा रहा है? बिहार में इस राजनीतिक घटनाक्रम ने यह साबित किया है कि वर्तमान दौर में देश की राजनीति में नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षाओं और मनोवृत्ति की पूर्ति के सिवाय लोकतंत्र में कोई दूसरा धर्म नहीं बचा है। ऐसे में क्या यह नहीं पता चलता कि इन राजनीतिक दलों की विचारधारा और सिद्धांत नाम के रह गए है, जो मात्र कोरे कागज पर सिमट कर रह गए हैं। वास्तविक धरातल पर आज के वक्त में इन दलों की कोई जनहितार्थ महत्वाकांक्षा दृष्टिगोचर नहीं होती।
इस घटनाक्रम के पहले 2014 में हो रहे लोकसभा चुनाव के वक्त के मन-मुटाव को आज के वक्त में भाजपा और जदयू दोनों भूल गईं, तो इसके पीछे भी राजनीतिक कारण है। वह दौर था, अपनी राजनीतिक प्रतिभा को राष्ट्रीय फलक पर चमकाने का। लेकिन वर्तमान दौर में नीतीश कुमार को एहसास हो चुका है कि महागठबंधन के साथ रहकर उनके सुशासन बाबू होने का तमगा भी उनसे फिसल रहा है। साथ ही आने वाले वर्षों में राष्ट्रीय राजनीति में उनकी पहुँच भी नहीं बन सकती। इसके साथ भाजपा को दिखावे का कांग्रेस मुक्त भारत बनाना है। ऐसे में इन दोनों दुश्मनों का राजनीतिक गठजोड़ हो गया।
नीतीश कुमार ने 2014 में भाजपा का साथ इस डर से छोड़ा था कि नरेन्द्र मोदी द्वारा भाजपा की कमान संभालने की वजह से संप्रादायिकता के छींटे उनके गिरेबान पर भी गिरेंगे। लेकिन जब वर्तमान दौर में नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचार से दामन छुड़ाने के लिए लालू यादव का साथ छोड़कर भाजपा का दामन थाम ही लिया है, तो अब जनता-जर्नादन को जदयू से जवाब मांगना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि वहीं भाजपा उसे पुनः रास आ गई, जो 2014 में उसे अछूत लग रही थी। लोकतंत्र में ऐसे राजनीतिक ड्रामेबाजी से एक ओर जहां स्वस्थ लोकतंत्र प्रभावित होता है, वहीं जनता के अधिकारों की बलि भी चढ़ती है। ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी कोई व्यवस्था बनानी होगी, जिससे जनता के हितों की रक्षा की जा सके। मात्र राजनीतिक हितसाधना ही सियासत का कार्य बनकर न रह जाए।
वर्तमान दौर की राजनीतिक परिपाटी को गौर से देखा जाए, तो राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का दौर उत्तर, दक्षिण यानी सम्पूर्ण भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में दिख रहा है। बात चाहे उत्तरप्रदेश में पिता-पुत्र की हो, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की या फिर लालू यादव और मायावती हों। सभी का दस्तूर यही है कि किसी भी तरीके से सत्ता का रसास्वादन होता रहे। इसके लिए चाहे साम, दाम कोई भी नीति पर चलना पड़े। इसके साथ इन नामों में कुछ के तो सूरज वर्तमान दौर में अस्त की ओर बढ़ रहें हैं। इसलिए उनकी अपनी राजनीतिक हैसियत को जिंदा रखना किसी भी कीमत पर उनको जरूरी लग रहा है। लेकिन यह कहां तक उचित होगा कि जनता के फैसले को ठेंगा दिखाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकी जाएं?
बिहार में जनता के निर्णय से अलग जाते हुए अब नई राजनीतिक स्थिति निर्मित होने के बाद लालू यादव का राजनीतिक परिवारवादी कुनबा इस स्थिति से कैसे निपटेगा, यह देखने वाली बात होगी? इसके साथ क्या अब बिहार जैसे बड़े राज्य में जातिवाद और परिवारवाद की परिपाटी राजनीति से दूर होगी? इसका उत्तर भविष्य के गर्भ से निकलेगा। इस नये गठजोड़ के बाद जब राहुल गांधी और लालू यादव नीतीश कुमार को महागठबंधन तोड़ने के लिए खरी-खोटी सुना रहें है, फिर क्या हम और जनता यह विश्वास करें कि अब राहुल और लालू कभी सत्ता की खातिर नीतीश से हाथ नहीं मिलायेंगे? सत्ता में आज के दौर में कुछ भी, कभी भी संभव है। अब जनता को खुद विचार करना होगा कि वह अपनी भलाई के लिए किसे और किस पैमाने पर चुने? राजनीतिक दलों पर विश्वास किंचिंत नहीं किया जा सकता है। जब जनता ने महागठबंधन को पांच वर्ष के लिए सत्ता सौंपी, फिर नीतीश का मुकरना जनता के साथ साफ धोखा है। साथ में इसके असल जिम्मेदार कौन हैं, यह जनता को सोचना होगा और आगे के लिए सचेत रहना होगा।
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