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कब कम होगा बच्चों के स्कूल बैग का भार?

aandolan
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वर्तमान दौर में आधुनिकता की खुमारी हमारे समाज पर इतनी हावी हो गई है कि लोगों को अपना भला-बुरा दिखना भी बंद हो गया है। तभी तो जिस समय पर बच्चों को घर पर नैतिकता का पाठ सिखाना चाहिए, उस उम्र में किताबी ज्ञान के लिए स्कूल का दरवाजा खटखटाया जा रहा है। छोटी सी उम्र में बच्चों पर किताबों का भारी-भरकम बोझ पड़ना शुरू हो गया और वहीं से उनकी जिंदगी में आफत भी शुरू हो गई। आज देश में स्कूली शिक्षा का बुखार इतना हावी है कि दो-ढाई वर्ष के बच्चे को स्कूल का दरवाजा दिखाया जा रहा है। ऐसे में स्कूल जाकर वह बच्चा क्या सीखता होगा, समझा जा सकता है। क्योंकि जब उसने ठीक से मुंह खोलना भी नहीं सीखा, फिर कैसी शिक्षा ग्रहण करेगा।

माता-पिता और संरक्षकों को अपने पूर्वजों से सीखना चाहिए, जिसमें कई उदाहरण मिल जाएंगे, जो घर पर रहकर ही शुरुआती शिक्षा प्राप्त किए हैं। पर निजी स्कूलों की एजेंडा सेटिंग थ्योरी और समय का अभाव बच्चों के शुरुआती जीवन को निराधार बना रहा है, जो गलत है। इसके साथ वे व्यवहारिक ज्ञान में भी पिछड़ रहे हैं, सो अलग।

वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल ने वर्ष 1992 में बच्चों के बस्तों के बोझ को कम करने को कहा था। उस बात को लगभग 25 वर्ष बीत गए और यशपाल जी भी नहीं रहे। इतने दिनों में कुछ नहीं बदला, तो वह रहा बच्चों की पीठ पर लदा कुलियों जैसा भारी-भरकम बोझ। 2015 में हुए महाराष्ट्र में एक वैज्ञानिक सर्वें में यह पुष्टि हुई थी कि स्कूल जाने वाले 58 फीसदी बच्चों में पीठ दर्द और रीढ़ में विकृति का कारण बच्चों को ज्ञान उपलब्ध कराने वाली किताबों का बोझ है। इसके अलावा इस सर्वें में एक अन्य गंभीर तथ्‍य सामने आया था कि बच्चों की शारीरिक लम्बाई न बढ़ने का कारण भी इनके स्‍कूली बैग का वजन है।

ऐसे में सामाजिकता से जुड़े गंभीर मसले पर विद्यालयों के व्यवस्थापकों से लेकर सरकारों तक की उदासीनता यह जगजाहिर करती है कि सरकारें अपने नौनिहालों के प्रति सजग नहीं हैं। इसके इतर सबसे बड़ा चिंताजनक विषय तो यह है कि माता-पिता भी विरोध जाहिर नहीं करते। वैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चों के भार के अनुपात में बस्ते का वजन 10 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। फिर जब हमारे नौनिहाल ज्ञान के नाम पर 10 से 12 किलो के बीच के बस्ते ढोते हैं, तो उस पर हमारी नैतिक जिम्‍मेदारी शून्य क्यों हो जाती है?

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मध्यप्रदेश में बच्चों के बैग का वजन लगभग 17 किलो होता है। इसके साथ ही सूबे के 68 फीसदी बच्चे अगर बैग के बोझ के कारण किसी न किसी बीमारी से पीड़ित हैं, तो सरकार को इस तरफ सचेत होना चाहिए। भोपाल शहर के चार स्कूलों के बच्चों पर हुए कुछ महीने पहले के सर्वे, जिसमें क्लास चार से आठ तक के बच्चों को शामिल किया गया, तो यह सामने आया कि बच्चों के भार के औसत में उनके स्‍कूल बैग का भार 18 फीसदी था। यही हाल पूरे देश का है। तेलंगाना सरकार द्वारा स्कूली बच्चों के बस्तों का बोझ कम करने और प्राथमिक स्तर के बच्चों के होमवर्क पर रोक लगाने का निर्णय प्रशंसनीय और अनुकरणीय पहल है। जिस ओर मध्यप्रदेश सरकार को भी विचार करना चाहिए।
इसके इतर हमारे न्यायालय ने भी जब अपने आदेश में यह कहा है कि बच्चों के बस्ते का वजन बच्चों के वजन के अनुपात में दस फीसदी से अधिक न हो, फिर बच्चों के साथ पढ़ाई के नाम पर खिलवाड़ क्यों हो रहा है? इसके पीछे का पूरा उद्देश्य साफ दिखता है कि निजी स्कूलों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए किताबों के बोझ में बचपन दबा दिया जाता है। यह आखिर कहां तक सही है? जिस उम्र में बच्चों को मौखिक ज्ञान और खेल-खेल में सिखाने की जरूरत होती है, अगर उस कच्ची उम्र में ही बच्चों को कुली बन दिया जाएगा, तो उनके शारीरिक और मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता होगा। सरकार, बुद्धिजीवियों और संरक्षकों को इसका ख्याल रखना होगा। जब आज के दौर में तकनीकी सिर चढ़कर बोल रही है, फिर अगर बच्चों को कुछ नया सिखना भी है, तो तकनीक का सहारा भी लिया जा सकता है। जिससे किताबों की लादने की नकारात्मक प्रवृत्ति भी कम होगी।

अमेरिका के बच्चों को बस्तों के बोझ के झंझट में नहीं पीसा जा रहा है, तो क्‍या वे कहीं भी, किसी स्तर पर अन्य देशों के बच्चों से पीछे हैं? और हमारे देश में बस्तों के तले लादने के बाद भी शिक्षा की वही स्थिति है, ढाक के तीन पात। फिर ऐसी शिक्षा किस अर्थ की, जिससे बच्चों का बचपन भी गुम हो जाए और वे बीमारियों का घर बनकर रह जाएं। इस पर हमारे नीतिनियंताओं को गहन विचार-विमर्श करना होगा।

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