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दहेज प्रथा- ऐसा नासूर जो बहन-बेटियों के जीवन पर पड़ रहा भारी

aandolan
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आज देश इक्कीसवीं सदी में चहलकदमी कर रहा है, लेकिन कुछ सामाजिक बुराइयां हैं, जो समाज का पीछा साये की तरह करती चल रही हैं। या यूं कहें कि हमारा समाज बदलने को सोच ही नहीं रहा है। आज समाज में दहेज हत्या ऐसा नासूर बन चुका है, जो हमारी बहन-बेटियों के जीवन पर भारी पड़ रहा है। फिर भी हमारा समाज उस विकट स्थिति को दूर न करके, मात्र पहनावे और अन्य मुद्दों पर आधुनिक होने का दावा करता है, लेकिन अपनी पुरानी सोच के ढर्रे से अलग नहीं हो पा रहा। तभी तो कुछ महीने पहले महाराष्ट्र के लातूर से एक असहनीय पीड़ादायक और समाज को झकझोरने वाली खबर अखबारों में छपी।

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यह वही महाराष्ट्र का लातूर है, जहां पानी का संकट भयावह होता है, लेकिन पिछले दिनों अखबारों में छपी खबर समाज को आईना दिखा रही थी। समाज में पनपे उस जहर को खत्म करने को कुरेद रही थी, जिसको हमारी सामाजिक परम्परा ने ढोना अपना सामाजिक बड़प्पन और फर्ज मान लिया था। लेकिन महाराष्ट्र के सामाजिक हालात के साथ देश का एक नया चेहरा जो पिछले दिनों सामने आया है, क्या उसको समाज से दूर करने का बीड़ा कोई उठाएगा? कि दहेज के नाम पर जिंदगी ऐसे ही मौत के घाट उतरती रहेगी और हमारा समाज व लोकतांत्रिक व्यवस्था शांत चित्त होकर देखता रहेगा।

21वीं सदी वह कालावधि है, जो सामाजिक सरोकारिता का युग है। ऐसा कालखण्ड, जिसमें स्त्री- पुरुष दोनों का सामाजिक उत्थान में अहम योगदान रहने वाला है। वर्तमान दौर में देश के भीतर सामाजिक कुरीतियों और समाज विरोधी पुरातनपंथी जड़ता को उखाड़ फेंकने के लिए हमारा समाज बेताब है। फिर वह सामाजिक बुराई की जड़ चाहे शराब हो, मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक का मुद्दा हो या सामाजिकता और नैतिकता से जुड़ा विषय अन्न की बर्बादी का मुद्दा हो। इसके अलावा समाज पर अनावश्यक बोझ बढ़ाने का काम करने वाला शादी-विवाह में अनावश्यक ख़र्च का विषय हो। समाज में अंतहीन समझी जाने वाली इन बुराइयों को अब समाज से दरकिनार करने के लिए आवाज़ मुखर हो उठी है।

समाज में व्याप्त एक और अंतहीन बुराई पर आघात करने का समय आ गया है। इसको देश के समकक्ष बड़ी विडंबना ही कह सकते हैं कि जिस दौर में दुनिया एक गांव में तब्दील हो चुकी है, उस परिवेश में भी पैसों को हमारा समाज अपना रुतबा समझता है। दहेज न मिलने पर महिलाओं पर जुर्म करने की घटनाएं सुर्खियों का हिस्सा बनती हैं। यह समाज के सापेक्ष बड़ा विदारक दृश्य है कि इस आधुनिकता के परिदृश्य में भी आदमी, आदमी से प्रेम न करके पैसों के पीछे भाग रहा है।

यह समाज के बिगड़ते परिवेश का नतीजा है कि 21वीं सदी में रहते हुए हम आए दिन दहेज हत्या की खबरों से रूबरू होते हैं। तमाम कानूनों के बावजूद दहेज लोभियों के मन में कानून का रत्ती भर भय नहीं दिखता। उस दौर में देश के रहनुमाओं को दहेज प्रथा के विरोध का बीड़ा भी जोर-शोर से उठाना चाहिए, क्योंकि वर्तमान में दहेज प्रताड़ना और हत्या समाज के समक्ष नासूर बन गया है, जिसका घाव बढ़ता जा रहा है। इसके कारण भ्रूणहत्या की घटनाएं भी समाज में बढ़ रही हैं।

इन तथ्यों को देखते हुए देश के प्रधानमंत्री और अन्य सियासतदां को दहेज प्रथा का पुरजोर विरोध की अलख समाज में छेड़नी होगी, जिस तरह समाज मे तीन तलाक और शराबबंदी जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी जा रही है। क्योंकि देश में औसतन हर एक घंटे में एक महिला दहेज संबंधी कारणों से मौत के ग्रास में समाहित होती है। वर्ष 2007 से 2011 के बीच दहेज हत्या के मामलों में काफी वृद्धि दर्ज की गई।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस व्यथा की बानगी प्रस्तुत करते हैं कि विभिन्न राज्यों से वर्ष 2012 में दहेज हत्या के 8,233 मामले सामने आए। आंकड़ों का यह ग्राफ साबित करता है कि जिस दौर में स्त्रियों को पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलने का जिक्र होता है, उस दौर में स्त्रियों के जीवन की कहानी यह है कि प्रत्येक घंटे में एक महिला दहेज की बलि वेदी पर चढ़ रही है।

देश, वक्त और राजनीति का तकाज़ा है कि राजनीति में कुछ मुद्दों को लाभ-हानि की फितरत से बहसबाजी के केंद्र बिंदु में बांधा जाता है। पर आज़ादी के सत्तर बसन्त पार करने के बावजूद देश के समक्ष कुछ विसंगतियां, कुरीतियां व्याप्त हैं, जिनको समाज से छिन्न-भिन्न करने के लिए राजनीतिक हैसियतदारों को उस मुद्दे को नफा- नुकसान के तराजू पर न तौलते हुए, उस पर सख्त प्रहार करना चाहिए।

वर्तमान समय में अगर दहेज नामक बला को देश से समेटने की बाट कोई नेता जोह रहा है फिर चाहे वे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों या देश के महामहिम राष्ट्रपति, उनके इस सराहनीय कदम को एक सकारात्मक पहल के रूप में देखना चाहिए। न की इससे होने वाले राजनीतिक लाभ-हानि का विचार होना चाहिए। ऐसे में अगर नीतीश कुमार ने दहेज प्रथा के विरुद्ध बिहार के लोगों का आह्वान किया है, तो क्या यह हमारे राष्ट्रीय स्तर के रहनुमाई की नैतिक जिम्मेदारी नहीं कि दहेज प्रथा के विरोध को राष्ट्रीय आह्वान बनाया जाए?
देश मे हर मुद्दे को राजनीतिक तराजू पर तौलने की परिपाटी को हमारे नेताओं को छोड़ना होगा, क्योंकि आख़िरकार दहेज प्रताड़ना में पिसती महिलाएं, बेटियां भी हमारे समाज से हैं। इस तरह की बेरुखी समाज में उचित नहीं। दहेज प्रथा पर लगाम का चाबुक खींचने के लिए प्रधानमंत्री को भी नीतीश कुमार के आह्वान को राष्ट्रीय स्तर पर करना होगा। तभी कुछ स्तर तक गरीबीयत और भ्रूणहत्या पर लगाम लग सकती है।

समाज की उन्नति का द्योतक यह होता है कि समाज मे स्त्रियों को क्या जगह मिली है? हमारे देश में महिलाओं के अंतरिक्ष तक पहुंचने की डींग मारी जाती है, लेकिन देश के भीतर दहेज का दंश झेल रही महिलाओं का दर्द कोई समझने को तैयार नहीं। तभी तो 2014 में रायटर फाउंडेशन ने दुनिया भर के 370 विशेषज्ञों से एक आकलन करवाया, जिसमें यह कटु सत्य निकलकर सामने आया कि भारत में महिलाओं की स्थिति सबसे दयनीय है।

यह तथ्य सही भी है कि अन्य अपराधों की तुलना में दहेज के लिए महिलाओं के उत्पीड़न के मामले ज्यादा शर्मनाक हैं, क्योंकि यह पूरे समाज की मानसिकता को बयां करते हैं। दहेज के नाम पर 2011 में देश में 8618 महिलाओं की हत्या हुई। 2012 में यह आंकड़ा कुछ कम हुआ, लेकिन 8233 रहा। वहीं 2014 में 8455 मौत हुई, जो समाज का एक ऐसा चरित्र रूपांतरित करती हैं कि समाज की मानसिकता कितनी खोखली और बुराइयों के कीड़ों से लद चुकी है। साथ में यह बुराई जगजाहिर करती है कि समाज मे आपसी विश्वास और तारतम्यता छद्म झूठ पर टिका है।

देश में दहेज प्रथा को रोकने के लिए, दहेज निषेध अधिनियम 1961 है, जिसके अनुसार दहेज लेन-देन पर पांच वर्ष की कैद और जुर्माने का जिक्र है। इसके साथ आईपीसी की धारा 498ए है, जो शादी के लिए अवैधानिक मांग से सम्बन्धित है। इसके अलावा भी कानून हैं, फिर भी दहेज प्रथा बंद नहीं हो रही। वर्ष 2016 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा संसद पेश किया गया आंकड़ा बयां करता है कि वर्ष 2012 से वर्ष 2014 के बीच भारत में दहेज की वजह से करीब 25 हज़ार महिलाओं की या तो हत्या कर दी गई या उन्होंने आत्महत्या कर ली। अर्थात देश में हर रोज़ करीब 20 महिलाओं की मौत की वजह दहेज प्रथा होती है। ऐसे में अब नीति-नियंताओं के साथ सामाजिक न्याय से जुड़े लोगों को ही मुहिम छेड़नी होगी, तभी इस सामाजिक बुराई को समाज से तिलांजलि मिल सकेगी। इसमें नेताओं को भी अपने फायदे की तिलांजलि देकर आगे आना चाहिए।

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