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जब मैं आने को कहती हूँ
तब…………………………..
तुम क्यों सहम जाते हो?
मैं भी आना चाहती हूँ,
उस गगन तले जिसमें
तुम रहते हो।
मैं भी उस जगत् को
देखना चाहती हूँ,
जिसे तुम देखते हो।
मैं भी उन सुरों को
सुनना चाहती हूँ,
जिसे तुम सुनते हो।
मैं भी वह सब
करना चाहती हूँ ,
जिसे तुम करते हो।
मै भी वो ज़िन्दगी
जीना चाहती हूँ,
जिसे तुम जीते हो।
मैं भी वे सपने
बुनना चाहती हूँ,
जिसे तुम बुनते हो।
पर जब मैं आना चाहती हूँ,
तब तुम सहम क्योँ जाते हो?
मुझे आने क्यों नहीं देते?
मुझे अपना संसार,
ये रंग-बिरंगा संसार,
देखने क्यों नही देते?
आखिर मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा?
फिर तुम क्यों मुझे जीने नहीं देते?
क्यों नही देखने देते,
मुझे प्रभात का सूरज,
जिसके सहारे तुम जीते हो।
मैं भी देखना चाहती हूँ,
वो सूरज।
मैं भी जीना चाहती हूँ,
उसके प्रकाश तले।
पर…..
तुम मुझे जीने क्यों नही देते?
मेरे आने की बात सुनकर
तुम सहम क्यों जाते हो?
क्या सचमुच मुझे जीने का
अब अधिकार नहीं रहा?
तो फिर बताओ
किस न्यायालय में जाकर ,
मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ?
जब मेरा अपना कोई
कर्णधार न रहा।
क्या बिगाड़ा है मैंने तुम लोगों का?
जो मुझे इस धरा पर आने नहीं देते?
मुझे भी प्रकाश का एक पुञ्ज पाने नहीं देते?
मैं जब आना चाहती हूँ
तो…….
मेरी आहट सुन सहम क्यों जाते हो?
क्यों काँपने लगते हैं तुम्हारे अधर
क्यों खिंच जाती हैं
तुम्हारे मस्तक पर
चिन्ता की लकीरे?
आखिर क्यों?
मैं जानना चाहती हूँ
कि क्यों तुम मुझे आने नही देते?
तथा मेरे प्रश्नों को निरुत्तरित रखते हो।
मैं इन प्रश्नों का उत्तर चाहती हूँ
तथा इस धरा पर आना चाहती हूँ
आने दो मुझको……………
मुझे भी इसका हक है,
मत छीनो मेरा अधिकार,
मत लगाओ उसमें सेंध।
मैं भी जीना चाहती हूँ,
और देखना चाहती हूँ,
प्रभात का सूरज।।
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