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ऐसे थे हमारे सरपंच साहब !

विज्ञान जगत और मेरा समाज
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स्वर्गीय श्री ठाकुर सिंह जी को शत शत नमन  – दसवीं पुण्यतिथी !

बड़े शौक से सुन रहा था , ज़माना !

आप ही सो गये दास्तां कहते कहते !!


सरपंच साहब नाम से लोकप्रिय स्वर्गीय श्री ठाकुर सिंह जी की आज दसवीं पुण्यतिथी है। स्वर्गीय श्री ठाकुर सिंह  जी का जन्म सन  1903 को उत्तर  प्रदेश के जिला बिजनौर के दहलावाला गांव में  में हुआ था। वह आठवीं कक्षा तक  पढ़े थे।  आठवीं  तक ही  पढ़ाई करने के बाद भी सरपंच साहब को   तीन भाषाओ  हिंदी ,उर्दू और फ़ारसी का ज्ञान था ,जिनमें  सही तरीके से लिख , बोल एवं पढ़ सकते थे।  वह बड़े ही कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी  थे।  गणित के सवाल वह मन ही मन में हल  कर देते थे।

1920 में उनका विवाह श्रीमति झंकिया देवी के साथ हुआ जो की एक कुशल  ग्रहणी थी ,ठाकुर सिंह जी ने अपना सारा जीवन अपनी शर्तो पर जिया और उनके  जीवन  में एक बार नहीं बल्कि कई बार बहुत ही विषम परिस्थतीया भी आयी, फिर भी  उन्होने कभी अपने ऊसुलो के साथ  समझौता नहीं किया कई बार गैर ही नहीं बल्कि उनके अपने भी उनके विरोध में आये पर उन्होने हार नहीं मानी और बात की खातिर बड़े से बड़ा त्याग किया।अपने 104 वर्ष के जीवन  में जहा उन्होने न सिर्फ स्वंत्रता संग्राम देखा, आजादी के दीवानो का जनून  देखा बल्कि स्वंत्रता संग्राम में  प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आजादी के दीवानो का साथ भी दिया। वह सरपंच बने  और सरपंच के रूप में इतने लोकप्रिय हुये कि अंत तक सरपंच साहब बने रहे।


आज उनके गांव को सड़क जाती है वह कभी उनके खेत हुआ करते थे गांव वालो को रास्ता देने के लिए उन्होने खेत तक  दान कर  दिये।  वह एक अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे और गलत बात उनसे सहन नहीं होती थी।  हालांकि अपनी इस आदत के कारण उनको काफी कष्ट भी झेलने  पड़े।  उनकी अनुशासन  प्रियता एवं थोड़ी कठोरता के कारण लोग उनके पास जाने में झिझकते थे।  वह सोचते थे सरपंच  साहब को मनाना आसान  नहीं है।  लेकिन सरपंच साहब सही बात पर हर  किसी की मदद करते थे।

जब कोई गांव में तंगी का शिकार होता था तो  उसको अपने घर से  गेहू की बोरी तक दे देते थे। गांव के कुछ ऐसे लोग जिनके पास खेती करने के लिए जमीन नहीं थी वह उनको अपनी जमीन  बटाई , साझे में खेती करने को दे देते  थे।  वह हर धर्म का आदर करते थे ,होली दीवाली पर वह अपने  घर पर उनके घर पर बने पकवान गांव के मुस्लिम घरो में  भेजते थे  और ईद पर मुस्लिम परिवारों से  उनके घर पर मिठाई आती थी।  मुझे अभी भी याद है जब मई जून में सरपंच साहब के बाग़ के आम  आते थे तो वह 20-20  आम अचार के लिए गांव के अधिकतर घरो में भिजवाते थे।

वह गांव की समस्या को अपनी समस्या को अपनी समस्या समझकर  खुद आगे आकर मोर्चा  संभालते थे ,  यही कारण था की गांव  वाले हर काम में उनको आगे कर देते थे।

उन्होने कानून नहीं पढ़ा था लेकिन  वह सभी क़ानूनी दाव पेच जानते थे।  उन्होने अपने जीवन में दर्जनों मुक़दमे लड़े और शायद ही किसी में उन्हे पराजय मिली हो।  वह वकीलों तक को कानून की बारीकियां समझाते थे।  कभी कभी कुछ वकीलों को अप्रिय लगता था लेकिन अनुभवी  वकील उनकी  बातो एवं सलाह को ध्यान से सुनते और उसी  आधार पर कार्य करते थे।

उन्हे पैदल चलने  बहुत शौक था वह 10-10 किलो मीटर की दूरी पैदल ही तय कर लेते थे। शायद यह भी उनकी लम्बी आयु का एक कारण रहा।  उनके दांत  भी  काफी मजबूत थे मुझे अभी   भी याद है 98  वर्ष की आयु में भी वह अपने दांतो से गन्ना खाते थे।  सन 2006 में उनकी  तबियत बिगड़ने लगी थी उनका इलाज भी चला। फिर एक दिन  20  दिसंबर 2007 को उन्होने अपने निवास स्थान पर अंतिम सांस ली और पूरे 104 वर्ष जीने वाला यह महापुरुष सभी गांव वालो   को अलविदा कह गया। सरपंच साहब ने पूरी एक सदी से भी अधिक समय तक इस समाज के उतार चढ़ाव को देखा , कई परिस्थतियो को खुद सहा।

स्वाभिमान एवं संवेदना के साथ अपने तौर पर अपने स्टाइल में जीवन जीने वाले सरपंच साहब को उनकी दसवीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन ! वह हमारे लिए प्रेरणा के श्रोत बने रहेंगे।

– मनोज कुमार

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