वृद्धाश्रम बनाम शिशु सदन (old age home vs. Creche)
आईने के सामने
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आमिर खान के सत्यमेव जयते के 15 जुलाई के वृद्धों पर कार्यक्रम ने मन को झकझोर दिया। सोचने पर मजबूर कर दिया की जिस समाज में कोई अपने बुजुर्गों से तेज आवाज में बात नहीं करता था, उसी समाज में लोग आज अपने बुजुर्गों को दुत्कार रहे हैं। एसा क्यों हुआ? एसा क्या परिवर्तन हुआ?क्या यह एकाएक अभी होने लगा या धीरे धीरे बढ़ रहा है? इसकी जड़ें कहाँ हैं? ये कुछ एसे प्रश्न उठते हैं, जिन पर एकबारसोचना आवश्यक हो जाता है।हर माँ-बाप अपने बच्चे की परवरिश करने में अपना सब कुछ लगा देता है। सब कुछ भुला देता है। हर माँ बाप यही चाहता है कि वह अपने बच्चे से इतना प्यार करे जितना किसी ने ना किया हो। ये अलग बात है कि उस समय वह अपने माँ-बापको भूल जाते हैं। शहरों में रहने वाले बहुत से लोग अपने बच्चों को छुट्टियों तक में गाँव में दादा-दादी के पास तक नहीं जाने देते हैं कि उनकी पढ़ाई पर असर पड़ेगा। लोग अपने बूढ़े माँ बाप से मिलने में भी नफा-नुकसान देखते हैं। फिर और बुढ़ापे में जब माँ-बाप पूरी तरह अनुत्पादक हो जाते हैं, कौन पुंछेगा?जो और एक बात कार्यक्रम से निकलकर आयी थी वह यह थी कि, रिटायरमेंट के बाद, या साठ साल के बाद अक्सर लोग कुछ भी कमाने से भी रिटायर हो जाते हैं। यह भी ठीक नहीं। क्योंकि बीस-तीस साल सिर्फ यों ही बिताना ठीक नहीं। जब तक हाथ पैर काम करते रहें, कुछ ना कुछ कमाते रहना चाहिए।जो एक बात मुझे खटकती है, वह है- भावनात्मक जुड़ाव में कमी और धीरज / संयम में कमी। आज जब माँ बच्चे को गोंद में लेने कि बजाय पालने में डालकर खींचती रहती है, या छाती से दूध भी नहीं पिलाती,तो क्या बच्चा उतना ही भावनात्मक रूप से जुड़ेगा जितना कि जुड़ना चाहिए। जीतने ज्यादा क्रेच (पालनाघर) खुलेंगे, उतने ही वृद्धाश्रम भी खुलेंगे। एक जो मुख्य बात मुझे समझ में आती है वह यह कि आज के माँ-बाप में संयम नहीं है, ना ही वह अपने बच्चों को संयम सीखते हैं। छोटे-छोटे बच्चों पर काम का, कैरियर का इतना दबाव है कि उनका बचपन छिन गया है। टीवी चैनलों पर छोटे बच्चों का कार्यक्रम देखिये तो दिखता है कि बच्चे, बाल सुलभ ब्यवहार नहीं करते बल्कि लगता है जैसे बहुत मेच्योर हैं। ये बच्चे कैरियर के लिए माँ-बाप तो क्या कुछ भी छोड़ देंगे। लेकिन इसका जिम्मेदार कौन है, क्या वही माँ-बाप नहीं हैं?जहां तक संयम कि बात है, अमीर हों या गरीब, आज किसी में संयम नहीं है। पहले अगर माँ-बाप अपने बच्चों की छोटी-बड़ी मांग पर संयम या धीरज कि सलाह देते थे, लेकिन आज हर माँ-बाप, बच्चों कि जायज-नाजायज मांग किसी भी तरह पूरा करना अपना कर्तव्य समझते हैं, पलटकर कभी समझाते नहीं। फिर जब यही बच्चे बड़े होंगे तो अपनी किसी भी इच्छा को कैसे रोक सकते हैं। अपना जीवन अपनी तरह से जीने के अभ्यस्त एसे लोग, माँ-बाप को अपनी राह का रोड़ा समझते हैं, फिर उनसे जल्दी से जल्दी छुटकारा चाहते हैं।
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