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आज जब चुनावों की घोषणा हो चुकी है, सभी दल उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण बनाने में जुट गए हैं। कांग्रेस अगर अंकल सैम को लेकर यूपी में यह कहकर घूम रही है कि यह विश्वकर्मा जाति यानि बैकवर्ड हैं, भारत में कंप्यूटर युग लाने वाले ब्यक्ति हैं, कांग्रेस के साथ हैं। भाजपा, बाबू सिंह कुशवाहा को तमाम भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद सिर्फ इसलिए गले लगा रही है, क्योंकि वह बैकवर्ड जाति के हैं। उमा भारती को यूपी में सिर्फ बैकवर्ड होने के नाते चुनाव में प्रत्याशी बनाने को मजबूर है। सपा के मुलायम तथा उनके भाई-बेटा सब खुद ही बैकवर्ड हैं। बसपा खुद को दलितों (जिसमें बैकवर्ड और सिड्युल्ड कास्ट शामिल हैं) कि पार्टी कहती है। तो जातिवाद का मुद्दा उठना स्वाभाविक ही है। सबसे मजे कि बात यह है कि सभी पार्टियां जातिवादी राजनीति की विरोधी हैं (कथन से) और सभी प्रदेश के विकास को ही मुद्दा मानते हैं। लेकिन फिर भी अगर आज इसी बात पर सब तरफ चर्चा है कि, उत्तर प्रदेश में सिर्फ जातिवाद ही मुद्दा है, तो इसका दूसरा पक्ष भी जरूर देखना होगा।
हमारे देश में जहां तक जाति का सवाल है, तो जाति हमारे देश की वो हकीकत है जिसे हम दिखाना भी नहीं चाहते और मिटाना भी नहीं चाहते। जब जातिगत आरक्षण की बात होती है तो हम जाति को नकारते हैं, जब शादी ब्याह की बात हो तो जाति तो क्या उसके अंदर गोत्र का भी सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन करते हैं। किसी का नाम पूंछते हैं तो, “आगे क्या ?” ये पूंछना नहीं भूलते। जब जातिगत जनगणना की बात होती है तो विरोध करते हैं। दूसरी जाति में शादी ब्याह करने पर बच्चों को जानवरों की तरह काट डालते हैं। जाति भारतीय समाज में एसा हो गया है कि ना तो उगलते बनता है ना निगलते। इस मामले में हमारा समाज ही नहीं, राजनीतिक दल भी जाति के मुद्दे पर दोहरा चरित्र दिखाते हैं।
भाजपा, जो जातीय की राजनीति की सबसे ज्यादा विरोधी है, जातीय आरक्षण के बजाय आर्थिक आधार पर, आरक्षण की हिमायती है, कभी भी जाति को खतम नहीं करना चाहती। जबकि यदि जाति ही खतम हो जाये तो ये मुद्दे अपने आप ही खत्म हो जाएँगे। लेकिन क्योंकि भाजपा, सवर्णों की पार्टी मानी जाती है, जिन्होने सैकड़ों सालों तक जाति ब्यस्था का ही फायदा उठाकर दलितों का शोषण किया, वह नहीं चाहते की दलित कभी भी जाति के नाम पर आरक्षण का फायदा उठाए, इसलिए आर्थिक आधार की बात तो करते हैं, किन्तु भूले से भी जाति को खत्म करने की बात नहीं करते।
कांग्रेस अपने 60 सालों के राज में गरीबी मिटाने की लगातार भले कोशिश कर रही हो, मगर जाति मिटाने की कभी भी कोशिश नहीं की। जबकि आधी गरीबी केवल जाति ब्यवस्था से है, जिसमें सबको हर काम करने का समान अधिकार नहीं है। जैसे कितना भी पढ़ा लिखा दलित हो, पण्डित-पुरोहित का काम करके कमा नहीं सकता। क्योंकि एक अघोषित जातीय आरक्षण समाज में लागू है। जिससे दलितों के साथ भेदभाव हो रहा है। कांग्रेस सरकार विश्व बिरादरी के सामने भारत की जाति समस्या को न कभी स्वीकारती है, ना ही इसे समाप्त करने की कोशिश करती है।
सपा तो वैसे भी बैकवर्ड के साथ साथ मुस्लिमों का असली संरक्षक बनती है। उसके संगठन में भी एक विशेष जाति का प्रभाव है। वह दलित हित में आरक्षण और आरक्षण के अंदर आरक्षण से आगे सोचते नहीं।
सबसे ज्यादा निराशा बसपा से होती है। अपने को दलितों की मसीहा बनने का दंभ भरने वाली बसपा, भले ही हमेशा दलितों का जाति के नाम पर सदियों तक शोषण करने के लिए मनुवादियों को दोष देती हो, लेकिन उसने कभी भी उस जाति ब्यवस्था को तोड़ने की प्रतिकात्मक कोशिश भी नहीं की।
अब प्रश्न यह उठता है कि, जब सारे देश कि जनता विकास, सुशासन, कानून ब्यवस्था, काला धन या भ्रष्टाचार को मुद्दा मानती है, फिर उत्तर प्रदेश में जाति मुद्दा क्यों है? क्या उत्तर प्रदेश कि जनता विकास नहीं चाहती? क्या उत्तर प्रदेश कि जनता सुशासन नहीं चाहती? एसा बिलकुल नहीं है। बल्कि यह हौव्वा कि उत्तर प्रदेश में सिर्फ जाति मुद्दा है, यह मुद्दे को केवल एक पहलू से देखना है। हकीकत यह है कि जाति के चुनावी मुद्दा बनने का मुख्य कारण दलित राजनीति का बढ़ता प्रभाव है।
पिछले कुछ वर्षो में, जिस तरह से दलित नेताओं का राजनीति में वर्चस्व बढ़ा है, और जिस तरह से कुछ दलित नेताओं ने, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा देना शुरू किया है, उसी की परिणति यह हो रही है कि, सभी पार्टियां, संख्या के हिसाब से ही अपने प्रत्याशी तय कर रही हैं। कोई इसे सोशल इंजीनियरिंग कह रहा है, कोई सामाजिक समरसता या समभाव कह रहा है। अब क्योंकि, दलितों (बैकवर्ड व शेड्यूल्ड कास्ट मिलाकर) कि आबादी सवर्णों से बहुत ज्यादा है, इसलिए ही राहुल गांधी को अंकल सैम और भाजपा को उमा भारती को लेकर यूपी में उतरना पड़ रहा है। लेकिन दलितों का यह बढ़ता हुआ महत्व, दलित विरोधी लोगों को हज़म नहीं हो पा रहा है। इसलिए सभी विद्वान जन जातिवाद बढ़ने का रोना रो रहे हैं।
सवाल यह उठता है कि अभी एसा क्या हुआ है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों का महत्व बढ़ गया है। इसके लिए हमें उत्तर प्रदेश के पिछले कुछ सालों की पृष्ठभूमि देखनी होगी। मायावती के यूपी का मुख्यमंत्री बनने से वहाँ के दलितों का आर्थिक स्तर भले ही ना सुधरा हो, लेकिन सदियों से दलितों कि दबी हुई मानसिकता में बदलाव अवश्य आया है। मायावती द्वारा दलित नेताओं की मूर्तियाँ और पार्क बनवाने से दलितों का आर्थिक विकास भले ना हुआ हो, उनका स्वाभिमान जरूर जागा है, उनके अंदर हिम्मत बढ़ी है, और उनका अपने हक और सम्मान के लिए संघर्ष बढ़ा है। अब वे जाति के नाम पर शोषण नहीं, जाति के नाम पर अपना विकास चाहते हैं।
जहां तक जातिवाद बढ़ने का सवाल है, तो यह तथ्य भी विचारणीय है कि कोई भी दलित या जाति ब्यवस्था से पीड़ित, खुद जाति ब्यवस्था को नहीं तोड़ सकता। ना ही उससे भाग सकता है। जिन दलितों ने हिन्दू धर्म छोड़कर अन्य धर्म भी अपना लिया, उनकी आर्थिक स्थिति भले ही ठीक हो गयी हो लेकिन सामाजिक बराबरी फिर भी नहीं मिलती। शायद इसलिए मायावती हों, या डा. उदित राज जैसे दलित नेता, वह जाति ब्यवस्था को खत्म नहीं कर सकते, वे ये बात समझ चुके हैं। इसलिए वे इसी जाति ब्यवस्था का फायदा आरक्षण के जरिये उठाना चाहते हैं। लेकिन जिन्हें यह पसंद नहीं है, और जो जाति ब्यवस्था को खत्म कर सकते हैं, वे जातीय आरक्षण का विरोध तो करते हैं पर जाति ब्यवस्था का नहीं।
तो फिर उत्तर प्रदेश में जाति चुनावी मुद्दा होने पर हाय तौबा कैसी? ऐसा क्यों दिखाया जा रहा है की यूपी में सब कुछ जाति के नाम पर ही हो रहा है, वहाँ की जनता जातिवादी है। जबकि जाति ब्यवस्था भारतीय समाज की एक हकीकत है और सदियों से लागू है तथा वर्तमान में भी पूरी तरह मौजूद है। फिर उससे आँख क्यों मूँदना? क्या जाति ब्यवस्था से दलितों का शोषण हो तो ठीक है, लेकिन यदि उसी जाति के नाम पर दलितों को राजनीति में थोड़ी सी जगह मिलने लगे तो जातिवाद है। अगर किसी को जाति से वास्तव में परेशानी है, तो वह जाति को खत्म करने के लिए आगे क्यों नहीं आता?
(इस लेख को, दैनिक जागरण को 21.01.2012 के सभी संस्करणों में प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद )
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