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जात ही पूछो आतंकवाद की

चिठ्ठाकारी
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पिछले दिनों याकूब मेमन को फांसी क्या हुई देश के तथाकथित “धर्मनिरपेक्ष” मानसिकता से जुड़े लोगों ने प्रचार–प्रसार किया। ऐसे लोगों का कहना था कि एक खास धर्म के होने के कारण याकूब को फांसी मिली वर्ना उसे छोड़ दिया जाता। इस दौरान काफी हो-हल्ला हुआ। न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार रात के समय भी सुनवाई हुई। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या धर्म के नाम पर सजा को कम या ज्यादा किया जा सकता है और क्या यह देश वाकई धर्मनिरपेक्ष है?


आतंकवाद की जात
भारत में पिछले कई सालों में केवल तीन या हार ही फांसी हुई है। इसमें कसाब, अफजल गुरु और याकूब शामिल है। अब खुद को धर्मनिरपेक्ष और कथाकथित उदारवादी कहने वाले लोगों से प्रश्न है कि जरा इन तीनों लोगों का धर्म जानते हैं आप?


यह तीनों शख्स मुस्लिम संप्रदाय से जुड़े हैं। देश में हुए अधिकतर या यो कहें सभी आतंकवादी हमलों में मुस्लिम संगठन से जुड़े लोगों का ही हाथ मिलता है। क्या यह सिर्फ एक इत्तेफाक है? जी नहीं, यह एक काला सच है जिसे तथाकथित उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और सोशल एक्टिविस्ट कहने वाले लोग नहीं देखना चाहते ठीक उसी तरह जैसे बिल्ली को सामने देख कबूतर यह सोच कर आंखे बंद कर लेता है कि ऐसा करने से बिल्ली मुझे नहीं देखेगी।
याकूब को फांसी तो साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों माफी क्यों ?


मेरे एक दोस्त ने यह सवाल उठाया कि अगर याकूब को फांसी मिल सकती है तो प्रज्ञा साध्वी जैसे तथाकथित हिंदू आंतकियों को सजा क्यों नहीं? दरअसल इस सवाल का कोई आधार नहीं है।  यह सवाल मीडिया द्वारा फैलाए गए प्रचार और अल्पसंख्यकों के लिए हमारे मन में बैठी दयाभावना की वजह से उठता है। जब भी किसी को फांसी होती है तो मीडिया में लगातार प्रचार किया जाता है। इस प्रचार से हमारे मन के सॉफ्ट कॉर्नर में यह उठता है कि चलो इसने जो किया उसे माफ करो, आखिर यह भी इंसान है उसे जीने का हक है।


यह है मुख्य वजह!
लेकिन जो लोग आंतकवादियों की फांसी पर इतना हो-हल्ला करते हैं वह 26 दिसंबर जैसी घटनाओं के दोषियों को कभी माफ करने के पक्ष में नहीं होते। अब इसके पीछे वजह है कि लोग सोचते हैं कि आतंकवादियों के कारण हमें अभी तक कोई नुकसान नहीं हुआ तो आगे भी नहीं होगा लेकिन बलात्कारियों के कारण हमें मुश्किल जरूर हो सकती है।

कई लोग तो यह भी तर्क देते हैं कि क्योंकि बलात्कारी हमारे समाज में रहते हैं इसलिए ज्यादा खतरनाक होते हैं और आतंकवादी बाहर से आते हैं इसलिए उन्हें कम खतरा होता है। दूसरा लोग यह भी मानते हैं कि इज्जत जान से बढ़कर है।


हिन्दू आतंकवाद: एक कल्पना और अतिश्योक्ति
कई साल मलेगांव बम धमाकों के दौरान “हिन्दू आतंकवाद” या ”भगवा आतकंवाद” का पहली बार इस्तेमाल हुआ था। कई लोग को मुजरिम बनाया गया लेकिन कोई खास कामयाबी नहीं मिली। मिलती भी नहीं, क्योंकि ऐसी कोई चीज होती ही नहीं है। मालेगांव बम धमाको में केवल तीन लोगों की मृत्यु हुई थी। क्या केवल इस कारण हिन्दू बहुल राष्ट्र के सबसे बड़े धर्म के साथ आतंकवाद जोड़ना सही है?


हिन्दू धर्म की विचारधारा सदैव “वसुधैव कुटम्बकम्” की रही है। अगर इस धर्म में कट्टरता जैसी चीज होती तो शायद भारत में भी मुस्लमानों के साथ वही व्यवहार किया जाता जो पाकिस्तान में हिन्दुओ के साथ होता है। लेकिन ऐसा नहीं है । इस धर्म की सोच सबको साथ लेकर चलने की है और आगे भी रहेगी।

आतंकवाद की जात की फसाद
भारत में आरक्षण ने सबका बंटाधार किया हुआ है। मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों को हम चीज में रिजर्वेशन मिलता है। आपको हज जाना है तो आपको सब्सिडी  मिलेगी लेकिन अमरनाथ यात्रा में आपको सही से इंतजाम मिल जाए तो काफी है। रमज़ान में इफ्तार की पार्टी सभी नेता देते हैं लेकिन नवरात्र में जागरण में आने के लिए नेता जी का इंतजार करना पड़ता है। हिन्दू दो से अधिक बच्चें कर दे तो चार ताने और मुस्लिमों के चाहे कितने बच्चें हो देश कुछ नहीं कहता।


ऐसे में जब आप अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से अधिक मान-सम्मान और सहूलियते देते हो और बहुसंख्यक एक समय के बाद खुद को पिछड़ा हुआ पाता है तो वह अल्पसंख्यकों के लिए घातक होता है। अब जब बहुसंख्यक प्रजाति या धर्म के लोग अल्पसंख्यकों को थोड़ा सा भी दबाते हैं तो वह कुंठाग्रस्त और खुद को पीड़त समझने लगते हैं। और इंसानी प्रवृत्ति के अनुसार लड़ने के लिए प्रेरित होते हैं। यही किस्सा आतंकवाद का है और यही किस्सा नक्सलवाद का।

अधिक समझने के लिए मेरा य्ह ब्लॉग अवश्य पढे :शोषण की खाद से पनपता नक्सलवाद


इसलिए आतकंवाद की जात जानना जरूरी है। इसी से आप पहचान कर सकते हैं कि आखिर समाज का कौन सा वर्ग है जो खुद को विकास की राह पर पीछे पा रहा है। आतंकवादी जरूरी नहीं कि हमेशा मुस्लमान हो वह हिन्दू सिख पारसी जैनी कोई भी हो सकता है। संघर्ष करना इंसान की प्रवृत्ति है और वह इससे पीछे नही हटेगा।


साथ ही इस देश की रक्षा, अस्मिता और कानून के साथ खेलने वालों की माफी का कभी सवाल नहीं उठना चाहिए। ऐसे लोगों को फांसी होनी चाहिए और जरूरी हो तो सार्वजनिक फांसी भी होनी चाहिए। माना कि आंख के बदले आंख निकालने से दुनिया अंधी हो जाएगी लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी कहता है कि ऐसा करने से अगली बार कोई आंख निकालने से पहले चार बार सोचेगा।


मैं जानता हूं कि यह लेख किसी को धर्म से जुड़ा लग सकता है, इससे किसी प्लेटफॉर्म के मानदंडो का हनन हो सकता है, किसी को हर्ट हो सकता है लेकिन यह सच है। अब यह हम पर  डिपेंड करता है कि हम कबूतर बनना चाहते हैं या इसका सामना करना चाहते हैं।

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