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आखिर जिंदगी है किसकी

चिठ्ठाकारी
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Aruna-Shanbagकुछ दिन पहले फिल्म “गुजारिश” देखी थी. ऋतिक रोशन स्टारर इस फिल्म में जिस मुद्दे को सब्जेक्ट बनाया गया था वह था इच्छा मृत्यु. हर जीवधारी का जीवन उसका स्वयं का होता है. उसे हक है वह अपनी जिंदगी को किसी भी राह पर ले जाए.



हमें शायद आजादी भी इसीलिए मिली है कि हम अपनी तरह जी सकें. जो करना है कर सकें. अगर हमारी जिंदगी हम पर बोझ बन गई है तो क्या हमें मरने का अधिकार नहीं है. यह बात मैं इसलिए नहीं कह रहा क्यूंकि मैं किसी फिल्म से प्रेरित हूं बल्कि आज यह ब्लॉग मैंने इसलिए लिखा है क्यूंकि मुझे लगा कि शायद इसकी जरुरत है.



1973 में मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम हॉस्पिटल) अस्पताल में एक नर्स अरुणा पर उसके ही अस्पताल के एक कर्मचारी सोहनलाल ने कुत्ते की जंजीर को अरुणा के गले में बांधकर उसके साथ दुष्कर्म किया फिर अरुणा को मृत समझकर उसे फेंक दिया. इस घटना का अरुणा के दिमाग पर बहुत बुरा असर पड़ा. जंजीर की वजह से उसके दिमाग में ऑक्सीजन जाना बंद हो गया और उनका दिमाग मृत हो गया. आज करुणा न सुन सकती है न बोल सकती न हिल सकती है और न ही कोई अन्य प्रतिक्रिया कर सकती हैं, पर उनकी दिल की धड़कनें चालू हैं इसलिए लोग उन्हें मृत नहीं जिंदा समझते हैं. पिछले 40 सालों से वह इसी तरह जिंदगी और मौत के बीच मानों एक मजाक बन कर रह गई हैं.



अदालत में कई बार अरुणा की इच्छा मृत्यु को लेकर आवाजें उठाई गईं लेकिन बार-बार इंसानियत का वास्ता देकर कोर्ट ने उन्हें इच्छा मृत्यु देने से मना कर दिया. कोर्ट का कहना है ऐसा करने से आज की पीढ़ी अपने बूढ़े मां बाप के लिए भी इच्छा मृत्यु की मांग न करने लगे.



images12लेकिन यहां किसी ने यह बात नहीं की कि इच्छा मृत्यु को लेकर कोई कानून बनाया जाय. यहां तो सिर्फ एक नर्स को ही मौत देने की बात हो रही है. जिसने कई मरीजों की सेवा की और मौत से लड़ते न जाने कितनों ही मरीजों को जीने की राह दिखाई आज वह अपनी जिंदगी से लड़ रही है. इस स्थिति में अरुणा को जिंदगी नहीं मौत देना ही सही होगा क्यूंकि ऐसी नारकीय जिंदगी से एक बेहतर मौत कई गुना अच्छी है.


हमारे यहां हर गलत काम के लिए कोर्ट नए-नए कानून बना सकता है. गे रिलेशनशिप और लिव इन रिलेशनशिप को समाज के हित में बता सकता है, भारतीय कानून बलात्कारी, आतंकवादी और हत्यारों को मानवाधिकार के आधार पर बरी कर सकता है, आम आदमी को उबलते हुए कढ़ाई में डाल सकता है, लेकिन एक सही फैसला नहीं कर सकता क्या.



कुछ समय पहले हॉकी प्लेयर वेंकटेश ने भी इच्छा मृत्यु की मांग कोर्ट के सामने खुद की थी लेकिन उनकी दयनीय स्थिति पर भी कानून ने अपने आंखों पर बंधी पट्टी नहीं खोली. आज भी यही लगता है कि अरुणा के केस में भी कानून के सामने हजारों बंदिशें होंगी और अपनी आंखों की पट्टी को वह नहीं खोलेगा.



इच्छा मृत्यु से समाज में कई परेशानियां तो आएंगी लेकिन उन परेशानियों से निबटने के लिए ऐसा कानून बना पाना भी नामुमकिन नहीं है जिससे अरुणा जैसे पीडितों को इज्जत की मौत मिल सके. आज जागरण जंक्शन पर राजेंद्र भारद्वाजजी का ब्लॉग पढ़ा तभी सोचा कि उनकी राय सही है और हमें इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी ही चाहिए.

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