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आज यूंही ऑफिस में हमारे एक सीनियर ने हमसे हमारे गांव का पता पूछ लिया कि तुम्हारा गांव कहां है. यकीन मानिए यह सवाल मुझे हाल के सालों में काफी बार पूछा गया है और मैंने हर बार इसका जवाब ले देकर गलत ही दिया है. इस बार भी मैं पोस्ट ऑफिस और जिला के फेर में फंस गया. पर बातों बातों में एक बात दिल को छू गई. आखिर मैं अपने गांव से दूर क्यूं हो गया हूं और मैं ही नहीं आज की अधिकतर युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से क्यूंदूर हो गईहै.
अब मुझे ही ले लिजिएं मुझे अपने गांव गए करीब आठ से नौ साल हो गए हैं. वैसे बीच में कई बार जाने का प्लान बना लेकिन जाना हो नहीं सका. पर शायद असली वजह कुछ और है. समय की कमी तो सिर्फ एक बहाना है. मुझे लगता है शायद में शहर की आरामपरस्त जिंदगी का आदी हो गया हूं और इसीलिए अपने गांव जाने से डरता हूं. अब एक छोटी सी बात ले लिजिएं बिजली. दिल्ली में बिजली 24 घंटो रहती है, कभी-कभार चली जाए तो एक दो घंटे में आजाती है. लेकिन गांव में इसके ठीक उलटा है. यहां अगर दिन में पांच-छह घंटे से ज्यादा लाइट आ जाएं तो लोग कहते हैं यहां बिजली बहुतज्यादा आती है.
खैर बिजली तो सिर्फ एक उदाहरण है ऐसे ना जानें कितने मूलभूत जरूरतें हैं जो गांव में हमें शायद नहीं मिल पाती. एक गांव से निकला हुआ ठेठ आदमी जब शहर की चकाचौंध को देखता है तो उसे इसके आगे गांव फीका लगने लगता है. और कुछ समय बाद जब वह दुबारा गांव जाता है तो उसे अपनी मिट्टी से ज्यादा उस शहर की याद आती है जिसमें उसे आराम मिलता है.
वैसे मैं भावनात्मक नहीं हो रहा कि मैं गांव से दूर हूं या अपनी मिट्टी से दूर हूं. मैं तो बस यही सोच-विचार कर रहा हूं यदि सभी लोग गांव छोड़कर शहरों में बस जाएं तो गांवो का अस्तित्व ही कहीं खत्म ना हो जाए. हमारी सरकारें तो गांवों को पहले ही पंचायतों के भरोसे छोड़ चुकी है और बाकि कसर गांव वालों खुद पूरी कर देते है.
आज देश में खाद्यान्न की कमी हो रही है. गेंहू, चावल जैसे अनाज मंहगे हो रहे है जिसका प्रमुख कारण है किसानों की कमी और कम खेती. साफ है जब शहर में खेती से ज्यादा पैसा कम मेहनत में मिले तो कोई क्यूं बैलों को लेकर दोपहरी में खेत जोते?
खैर गांव से दूर तो मैं भी हूं पर यकीन है एक दिन यह दूरी खत्म होगी.
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