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आधुनिक परिवेश में नारी

NAV VICHAR
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यह एक शाश्वत सत्य है कि  आज मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी करुणा , ममता और स्नेह से प्रभावित कर रही है नारी।  क्योंकि नारी एक भावना है , नारी एक एहसास है , नारी त्याग है , तपस्या है , नारी सेवा है , फूंक से ठंडा किया हुआ कलेवा है।  नारी अस्तित्व की वह आत्मा है जो अच्छे बुरे में फर्क कर हमें अपनी तरह बना देती है।  जब विश्व के आभा मंडल विराट उद्घोष करता है , तब जन्म होता है नारी का।  नारी वो है जो समय के साथ बदलती है , कभी माँ के रूप में तो कभी बहन , पत्नी और बेटी के रूप में।  कभी कभी तो समय को थाम भी लेती है नारी।

लेकिंग अभी भी हमारे सामाजिक परिवेश की जड़ें  ऐसी हो गयी है जहां लड़के लड़कियों में भेदभाव उनके जन्म से ही आरम्भ हो जाता है । यही भेदभाव शायद सबसे बड़ा कारन है नारी के पिछड़ेपन का । कभी कभी तो हर मामले में योग्य होने के बावजूद उसे सिर्फ इसलिए पीछे रहना पड़ता है क्योंकि वह एक नारी है ।

जहाँ तक आजकल की आम चर्चा का विषय बना नारी के अस्तित्व और उससे हो रही छेड़छाड़ की बात है तो यह न सिर्फ एक मानसिक समस्या है वरन इससे कहीं ज्यादा सामाजिक समस्या भी है । वास्तव में नारी के पिछड़ेपन की दयनीय स्थिति की जड़े इतिहास और समाज में ही है । हाँ, यह हो सकता है इसकी स्थति , अलग अलग देशों और वहां के समाज के अस्तर के अनुसार भिन्न भी हों।
अब अगर अपने देश की बात करें तो यहाँ कुछ समय से नारी भ्रूण हत्या की घटनाओ में अचानक बढोत्तरी हुई है । इसके पीछे शायद माँ बाप के मन में होने वाली बेटी को लेकर असुरक्षा की भावना ही सबसे महत्वपूर्ण कारन है । एक और कारन हमारे समाज में जड़ बनाये बैठे लिंग भेद भी है । अधिकांश परिवारों में जहाँ लडको को आरम्भ से ही जीने की स्वतंत्रता मिली होती है वहीँ लड़कियों को ज्यादा बोलने , ज्यादा हसने , ज्यादा घूमने यहाँ तक की ज्यादा पढाई लिखाई की भी स्वतंत्रता नहीं होती ऐसे में आरभ से ही लड़कियों में हीन भावना पैदा हो जाती है । धीरे धीरे यही सोच लड़कियों को कमजोर बनाती है और लडको को उनपर हावी होने का अवसर प्रदान करती है । बढती छेड़छाड़ की घटनाओ के पीछे यही महत्वपूर्ण कारन है।
यद्यपि परिस्थितियां तेजी से बदल रही है। आम लोगों की सोच और समझ में परिवर्तन आ रहा है।  आज की आधुनिक नारी का तो बस यही मानना है कि  हाँ मै सशक्त हूँ पर मेरे संस्कार मेरे लिए बोझ नहीं है।  मैं आधुनिक भी हूँ पर मेरे श्रृंगार मेरे लिए मार्ग बाधा नहीं है।  मैं शिक्षित भी हूँ इसीलिए लम्बे घूंघट की प्रथा से परहेज है मुझे , पर बड़ों के सामने हल्का सा आँचल दाल उनका आशीर्वाद लेना मुझे भाता है।
दरअसल नारी के ऐसी सोच के  मूल में समाजीकरण की ही प्रक्रिया है। इसके लिए किसी एक पुरुष या समाज के किसी एक हिस्से को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता वरन जिम्मेदार हमारा पूरा सामाजिक ढांचा है जिसे बदलना ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

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