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निजी स्कूलों की मनमानी कबतक

NAV VICHAR
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पिछले दिनों उत्तर प्रदेश और  अन्य राज्यों में भी प्राइवेट स्कूलों के मनमाने ढंग से एडमिशन लेने , फीस में वृद्धि करने समेत तमाम विषयों पर हो हल्ला हुआ है और कुछ जगहों पर जनता ने इस मामले में राज्य सरकारों को दखल देने के लिए आंदोलन भी किये जिससे इनके मनमानेपन पर रोक लगाई जा सके . जगह जगह अभिभावकों के संगठन भी बने जिससे की वे अपना विरोध और अपनी आवाज मजबूती से स्कूल प्रबंधन तक पहुंचा सकें . इसी बीच इलाहबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंड पीठ ने निजी स्कूलों द्वारा बच्चों से मनमानी फीस वसूलने के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका पर सी बी एस इ  और आई सी इस ई  बोर्ड को नोटिस जारी कर दी है।  कोर्ट ने दोनों बोर्ड और राज्य सरकार को चार हफ्ते में जवाब देने की ताकीद की है।  यद्यपि  राज्य सरकार ने निजी स्कूलों पर नियंत्रण के लिए एक बिल पहले ही तैयार किया है पर इसे कानूनी रूप नहीं दिया जा सका है।

वैसे भी पूरे देश में आजकल एडमिशन का मौसम है . अखबार हो या टी वी या कोई अन्य माध्यम ,सभी जगह स्कूल , कॉलेज और इंस्टीट्यूशंस अपने अपने ढंग से प्रचार कर रहे है . सभी सब्जबाग दिखाकर , अपनी उपलब्धिया गिनाकर बच्चों और अभिभावकों को अपनी तरफ आकर्षित करने का प्रयास कर रहे है . अब लगता है की ये कॉलेज पढाई का अड्डा न हो कर व्यवसाय का अड्डा हो गए है . निजी स्कूलों के प्रति आम जनता का आकर्षण इन स्कूलों को मनमानी करने में महत्वपूर्ण योगदान देते है। सरकारी स्कूलों के प्रति जनता और सरकार की बेरुखी भी एक बड़ा कारण है। लेकिन हम सब समाज में अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए इन स्कूलों के पीछे भागते है।  इसमें हमारी सोच की भी गलती है।  यहाँ के सरकारी स्कूलों का सच उस समय सामने आ ही गया था जब नवेम्बर 2015 में माननीय उच्च न्यायालय ने सरकारी कर्मचारियों , अधिकारीयों , निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने की कवायद की थी . दरअसल माननीय उच्च न्यायलय का यह आदेश उस कडुवे सच का प्रतिबिम्ब है जहाँ सरकारी स्कूलों की दुर्दशा और दुर्गति नज़र आती है . इस बात की सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता की सरकारी स्कूलों में मूल भूत सुविधाये तो न के बराबर है और तो और यहाँ के कमरे , दीवारे , पेय जल की व्यवस्था सभी शून्य है . इन विद्यालयों में शिक्षा का स्तर भी लगातार गिरता ही जा रहा है . यही कारण है कि आज गरीब से गरीब आदमी भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों कि अपेक्षा छोटे मोटे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने में ज्यादा रूचि लेता है . प्राइवेट स्कूलों के प्रति आम जनता कि बढ़ती रूचि और सरकारी स्कूलों के प्रति बेरुखी ही शायद वो कारण है कि माननीय उच्च न्यायालय ने सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने , शिक्षा का बेहतर वातावरण पैदा करने हेतु ऐसा आदेश पारित किया . सरकारी स्कूलों में बुनियादी कमी के साथ साथ शिक्षा देने के तरीकों में भी कमी है . तीस चालीस साल पहले इन्ही स्कूलों में अच्छी शिक्षा पद्धति थी , शिक्षक भी बेहतर , साफ़ सुथरी शिक्षा देना ही अपना धर्म समझते थे . इन्ही स्कूलों में पढ़ कर अनेक महान शिक्षक , लेखक , समाज शास्त्री और प्रशासक जन्मे है जिन्होंने समाज और देश को आगे ले जाने का गंभीर कार्य किया .
वास्तव में देश की वर्तमान शिक्षा पद्धति बचपन से ही हमारे बच्चों को  व्यावहारिक ज्ञान देने की बजाय किताबी कीड़ा बनाने की ओर ले जाती है। जो बच्चों के  प्राकृतिक विकास में बाधक सिद्ध हो रही है। ऐसा नहीं है कि हमारी सरकार और शासन इससे अनभिज्ञ हो। इन्ही मामलो को देखने के लिए बनाई गयी यशपाल समिति और प्रोफेसर चंद्राकर समिति ने अपनी रिपोर्ट में बच्चो पर बस्तो के बोझ पर वृहद् चिंता जताई थे। इनपर पूरे देश में चर्चा भी की गयी लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकल पाया और बच्चों पर बस्तो का बोझ बढ़ता ही गया। क्योंकि कोई भी नियम और कानून बिना दृढ इच्छा शक्ति के लागू नहीं कराया जा सकता।

इतना ही नहीं केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी छोटे बच्चो पर अपनी संवेदना दिखाते हुए इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया और किसी अंजाम तक पहुचाने की कोशिश की लेकिन ये उन्ही के संगठन तक सिमट के रह गयी।

 दरअसल समस्याएं हर देश और समाज में होती है पर उन्हें सहजता और सकारात्मकता से हल करने वाला देश और समाज ही आगे बढ़ता है . अब समय आ गया है की हम इस सोच से बाहर निकलकर छात्रों के लिए उचित क्या है इस पर विचार करे और इसको शिक्षा के रूप में ही स्वीकार करे न की इसका राजनीतिकरण कर निजी स्वार्थों के लिए उपयोग करे तभी छात्रों का और इस देश का भला होगा.

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