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अपने देश की राजनीति कभी कभी आम जनता के समझ में नहीं आती है। नोट बंदी को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इतनी मुखर है की उन्होंने अपना प्रदेश छोड़ कर पुरे देश में इसका विरोध किया लेकिन उन्हें अपने ही राज्य के हावडा से मात्र २५ किलोमीटर दूर धूलगढ़ में फैली साम्प्रदायिकता के आग की आंच तक नहीं महसूस हुई .वामपंथियों के राज में हिन्दुओं की दुर्दशा तो होती थी, परन्तु ममता बनर्जी के शासन काल में मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए वे सब अत्याचार किये हैं जो कभी मुस्लिम अक्रान्ताओं के राज में भी नहीं किये गए थे। पश्चिम बंगाल में साम्प्रदाइकता की घटनाये बार बार हो रही है .सिर्फ उन्हें ही नहीं इस घटना को न तो किसी मीडिया चैनल ने और न ही किसी राजनैतिक पार्टी ने संज्ञान लिया . मिलाद उन नबी के उत्सव के अवसर पर कुछ असामाजिक तत्वों ने एक धर्म के लोगो के घरों पर हमला किया, आगजनी की और जमकर उत्पात मचाया . जिससे सैकड़ो परिवार बेघर हो गए , आज उनके सामने रोजी रोटी की समस्या है और वे वहां से पलायन करने को मजबूर हो रहे है . घटना के काफी देर बाद आयी पुलिस भी इस उत्पात को संभाल नहीं सकी और कई पुलिस कर्मी भी घायल हुए . देश के मीडिया चैनल्स इस ख़बर को धार्मिक चश्मे से देख रहे हैं, और इसीलिए इन चैनल्स को ऐसी महत्व के खबरों को कवर करने की जरुरत महसूस नहीं हुई . लेकिन सवाल ये है कि क्या किसी हिंसक घटना को धर्म के चश्में से देखकर अनदेखा कर देना जायज़ है। क्या इस बड़ी ख़बर को नज़रअंदाज़ कर देने से ये समस्या खत्म हो जाएगी?
लेकिन आश्चर्य है की इस घटना पर असहनशीलता के रक्षक नेता , अभिनेता और विभिन्न राजनैतिक दल अब मौन है। शायद उन्हें पश्चिम बंगाल के धूलगढ़ के साथ ही साथ इसके पहले की मालदा और पूर्णिया में घटी घटना न तो दिख रही है और न ही घटना से पीड़ित लोगों के दुःख से उनकी कोई सहानुभूति है। आश्चर्य है की कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के किसी भी बड़े नेता का बयान सुनाई नहीं पड़ा। हैरत है कि ऐसी हिंसात्मक घटनाओ पर भी पार्टिया और नेता मौन साधे हुए है। शायद अब उन्हें असहिष्णु और असहनशीलता नहीं दिख रही है। देश के कथित सेक्युलर लोगों को समाज तोड़ने और आक्रामक सांप्रदायिक हिंसा की ये घटनाये नहीं दिखी। वास्तव में ऐसा लगता है की यहाँ के नेताओं और पार्टियों के दोहरे मानदंड है और कुल मिलाकर वे सिर्फ और सिर्फ वोट की राजनीती ही करते है। इतना ही नहीं धुल गढ़ , मालदा और पूर्णिया की घटनाओ को अपने को सबसे तेज, स्वतंत्र और निष्पक्ष कहने वाले टीवी और प्रिंट मीडिया ने भी प्रमुखता नहीं दी ,यहाँ तक की कुछ चैनलों ने तो इसे कवर ही नहीं किया। ये कैसा दोहरा मापदंड उनका , जहाँ अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यको पर हुए अत्याचार का कोई मोल नहीं है।
जरा विचार कीजिये कि स्तिथि इसके विपरीत होती तो क्या होता ? यही नेता और अभिनेता सामाजिक समरसता, एकता और सहन शीलता का झंडा लेकर सड़क से संसद तक मार्च कर रहे होते। ये समाचार रात दिन मीडिया की सुर्ख़ियों में होते। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती की हमें किसी की भी धार्मिक भावनाओ को आहत करने का कोई हक़ नहीं है ,ये कोई एक पक्षीय भावनाए नहीं होती , सबकी अपनी धार्मिक भावनाए होती है , उनकी अपनी प्रतिबध्यताएँ होती है , इनका आदर करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य और जिम्मेदारी है। पर देश के जिम्मेदार नेताओं , अभिनेताओं और पार्टियों को भी अपनी जिम्मेदारी पूरी सतर्कता से निभानी चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं वे समाज , वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है।
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