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सुबह होते ही छोटे छोटे बच्चे स्कूल ड्रेस में सजे धजे , आँखों में नींद और चेहरे पर मासूमियत लिए स्कूल के लिए अपने घरों से निकलते है पर उनके कंधो पर बस्तो का वजन उनके खुद के वजन से कही ज्यादा होता है। ये शायद हमारी शिक्षा पद्धति का दोष ही है। ये प्रणाली ही हम सब के लिए चुनौती बनी हुई है। हमारे बच्चो के कंधे बस्तो के बोझ से बुरी तरह दबे हुए है। इन बस्तो का वजन कभी दस किलो तो कभी इससे भी ज्यादा होता है। जबकि निर्धारित मानको के अनुसार ये वजन 6 किलो से ज्यादा नहीं होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं होता तो उन्हें पीठ और रीढ़ की हड्डियों से सम्बंधित अनेक बिमारियों का सामना करना पड़ता है।
वास्तव में देश की शिक्षा पद्धति बचपन से ही उन्हें व्यावहारिक ज्ञान देने की बजाय किताबी कीड़ा बनाने की ओर ले जाती है। जो उनके प्राकृतिक विकास में बाधक सिद्ध हो रही है। ऐसा नहीं है कि हमारी सरकार और शासन इससे अनभिज्ञ हो। इन्ही मामलो को देखने के लिए बनाई गयी यशपाल समिति और प्रोफेसर चंद्राकर समिति ने अपनी रिपोर्ट में बच्चो पर बस्तो के बोझ पर वृहद् चिंता जताई थे। इनपर पूरे देश में चर्चा भी की गयी लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकल पाया और बच्चों पर बस्तो का बोझ बढ़ता ही गया। क्योंकि कोई भी नियम और कानून बिना दृढ इच्छा शक्ति के लागू नहीं कराया जा सकता।
इतना ही नहीं केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी छोटे बच्चो पर अपनी संवेदना दिखाते हुए इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया और किसी अंजाम तक पहुचाने की कोशिश की लेकिन ये उन्ही के संगठन तक सिमट के रह गयी।
दरअसल किसी भी सरकार ने इस दिशा में कभी गंभीरता से प्रयास ही नहीं किये। यही कारण है की शिक्षा प्रणाली सिर्फ डिग्री लेने का साधन बनकर रह गयी। वर्तमान में बच्चो को अपने देश के इतिहास की ए बी सी डी नहीं मालूम है। कब अंग्रेजो ने हमें अपना गुलाम बनाया , हमारे महापुरुषों ने आजादी के लिए कितने जुल्म सहे , देश को आजादी कब मिली। सुभाष चंद्र बोस , चंद्र शेखर आजाद , शहीद भगत सिंह कौन थे , इन आधारभूत बातो की जानकारी भी उन्हें नहीं है। आज के बच्चे आजादी की कीमत नहीं समझते क्योंकि उन्हें कभी इससे रूबरू ही नहीं कराया गया।
यहाँ के सरकारी स्कूलों का सच उस समय सामने आ ही गया था जब नवेम्बर 2015 में माननीय उच्च न्यायालय ने सरकारी कर्मचारियों , अधिकारीयों , निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने की कवायद की थी . दरअसल माननीय उच्च न्यायलय का यह आदेश उस कडुवे सच का प्रतिबिम्ब है जहाँ सरकारी स्कूलों की दुर्दशा और दुर्गति नज़र आती है . इस बात की सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता की सरकारी स्कूलों में मूल भूत सुविधाये तो न के बराबर है और तो और यहाँ के कमरे , दीवारे , पेय जल की व्यवस्था सभी शून्य है . इन विद्यालयों में शिक्षा का स्तर भी लगातार गिरता ही जा रहा है . यही कारण है कि आज गरीब से गरीब आदमी भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों कि अपेक्षा छोटे मोटे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने में ज्यादा रूचि लेता है . प्राइवेट स्कूलों के प्रति आम जनता कि बढ़ती रूचि और सरकारी स्कूलों के प्रति बेरुखी ही शायद वो कारण है कि माननीय उच्च न्यायालय ने सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने , शिक्षा का बेहतर वातावरण पैदा करने हेतु ऐसा आदेश पारित किया . सरकारी स्कूलों में बुनियादी कमी के साथ साथ शिक्षा देने के तरीकों में भी कमी है . तीस चालीस साल पहले इन्ही स्कूलों में अच्छी शिक्षा पद्धति थी , शिक्षक भी बेहतर , साफ़ सुथरी शिक्षा देना ही अपना धर्म समझते थे . इन्ही स्कूलों में पढ़ कर अनेक महान शिक्षक , लेखक , समाज शास्त्री और प्रशासक जन्मे है जिन्होंने समाज और देश को आगे ले जाने का गंभीर कार्य किया .
आज आवश्यकता इस बात की है कि इस वर्तमान शिक्षा पद्धति में कुछ परिवर्तन लाया जाये , समय के अनुसार कुछ नए आयाम जोड़े जाये। नौनिहालो को क्या पढ़ाया जाए , कैसे पढ़ाया जाये , उनके बस्तों का वजन कितना रक्खा जाये , उनकी किताबो का कंटेंट क्या हो जिससे पढ़ने में उनकी रूचि बनी रहे। पढाई के साथ साथ उनके खेलों का समय भी निर्धारित किये जाये ताकि उनके मानसिक और बौद्धिक विकास के साथ शारीरिक विकास को सुनिश्चित किया जा सके। यदि ऐसा संभव हुआ तो बच्चों पर बस्तो के बोझ को अवश्य ही कम किया जा सकेगा और बेहतर शिक्षा मुहैय्या कराइ जा सकेगी .
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