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नक्सली, आतंकवादी
उठाता है बंदूक
भूनता है बेगुनाहों की जान
पका देता है सिने में जख्मों को
हरी-भरी वादियों में ले जाकर कहीं या
फिर मुंबई को रखता है निशाने पर
कभी ताज पर हमला
कभी दादर, झावेरी बाजार
और ओपेरा हाउस के समीप
करता है सीरियल ब्लास्ट
तब तलक
जब तक वह चाहता
है जिंदगी और मौत का खेल
खेलता रहता है खून की होली
जब तक वह चाहता है बेगुनाहों की जिंदगी से दरिंदगी का मजाक
खिल-खिलाता है जख्मों के निशां देखकर
लहू पीकर
दूसरों की खुशियां छिनकर।
बिहार के वादियों में बंधक बनाता है
पांच सिपाहियों को
भून डालता है उसमें से एक को।
अफवाह, सनसनी, नफरत, खून की बारिशों के बीच
फेंक देता है एक लाश
बीच सड़क पर
कौओं-चीलों के लिए
या फिर
सत्ता के पुजारियों के लिए एक तोहफा।
रोती-बिलखती
बेबाओं के हाल भी जो नहीं
पूछते कभी ये राजनेता, खद्दर वाले।
उजड़ी हैं बस्तियां
मांगों में सिंदूर के निशां जहां नहीं है
धुल गयी हैं रंगीन साडिय़ों के लिबास सफेदी में
बच्चों के आगे नहीं फेंकी जाती एक भी सूखी रोटी
सेंकी जा रही चुनावी गिरगिटों को उसी थाली में
पर सूनी कलाइयां उन्हें नहीं दिखती
मासूमों का वो चेहरा नहीं रूलाता उन्हें
बेबस बाप के कंधे पर जवान बेटे का शव
उन्हें नहीं दिखता
पिता की रिहाई की उम्मीद में बैठे उन मासूमों की आंखों का अंधेरा उन्हें नहीं खलता
जिस परिवार में अपने को बेकसूर बना लिया गया बंधक
भूल गये खादी टोपी लगाने वाले
कसाब की गोलियों से छलनी ताज को
फिर से संवार लिया जिसे
पर उन जख्मी आंसूओं की कीमत क्या लगाओ सरे बाजार में
अरे तुम तो
कसाब को गोश्त खिलाते हो
उसके लिए सुरक्षित स्थान की तलाश कर रहे हो तुम
करोड़ों कर रहे हो खर्च
एक पाक को मनाने में।
वो उठता है
भून डालता है
अफरा-तफरी
सन्नाटा
सायरन
चीख
हर तरफ लहू
सिर्फ लहू
फिर मातमी शांति
सब कुछ सुनाई-दिखाई पडऩा बंद, स्तब्ध
पर वो चेहरा कहीं गुम हो उठता है
जो अभी-अभी ताज के बाहर ही तो कहीं
बतिया रहा था अपनों से
दादर ही तो गया था वो
ओपेरा हाउस में अभी-अभी तो पहुंचा था वह
झावेरी बाजार से खरीदारी कर पत्नी के लिए चूड़ी लाने गया था वो
चहकती जिंदगी के शब्द मौन कर गया कसाब
उसी तरह का नकाबपोश इंडियन मुजाहिदीन या कोई और
और एक तुम हो
अमन-पैगाम, शांतिदूत
अमेरिका-पाकिस्तान
की बात कर रहे हो
शांति की भीख मांग रहे हो…
अपने ही घर में तुम अजनबी की तरह पेश आ रहे हो।
खुद के बनाये आशियाने में सुरक्षा की आग खोज रहे हो।
पहले खुद से लड़ो
उन बाजुओं से लड़ो
जो तुम्हारे अपने हैं
जिन्हें तुम्ही ने किया है तंदरूस्त।
पाल-पोषकर किया है नंग-धड़ंग।
चुनाव की खेती जीतने
या
फिर किया हैं जिन्हें शोषित समाज के ठेकेदारों ने
गोलियों की तरतराहट के बीच
कब तलक खोजते रहोगे
गाओगे अमन-शांति के गीत
भूल चुके हो तुम
आज भी पालने पर विश्वास करते हो
आतंकवाद
पर चैन से नहीं रहोगे
सोच लो…।
ये फैसले का वक्त है
अब नहीं तो कब…
सोच लो।
यह श्रद्धासुमन है उन लोगों के प्रति जिनका अपना नक्सली, आतंकी हमले में कहीं न कहीं शहीद हुए हों। यह श्रद्धाजंलि है उन बेगुनाहों के परिवारों के प्रति जिनकी जान की कीमत दंरिदें क्या जानें। आइये हम आप एक मिनट का मौन रख उनके प्रति श्रद्धा अर्पित-निवेदित करें।
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