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आजादी के बाद देश की आर्थिक दिशा-दशा को बदलने वाले निर्णयों का इतिहास बहुत पुराना है।1947 में, भारत विभाजन के दर्द और लोगों की भयंकर गरीबी से त्रस्त एक नया देश था। बेरोजगारी चरम पर थी। उस दौर में देश में नई कंपनियों को शुरू करने, या फिर किसी उत्पाद के उत्पादन या उत्पादन क्षमताओं के विस्तार के लिए भी लाइसेंस की आवश्यकता थी। कारोबारियों को कर्मचारियों की छंटनी करनी हो या फिर कंपनी बंद करनी हो, इसके लिए भी सरकार की मंजूरी लेनी पड़ती थी। समय मानो चल नहीं, बल्कि रेंग रहा था।
उस दौर की कल्पना कीजिए जब किसी को टेलीफोन कनेक्शन लेना होता था तो उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते थे। टेलीफोन के लिए आवेदन पत्र हासिल करने से लेकर भरे आवेदन पत्र जमा कराने, अपने नंबर का इंतजार करने, घर में फोन लग जाने में दो से तीन साल तक लग जाया करते थे। मध्यम वर्ग की पहुंच भी टेलीफोन तक नहीं थी। आज के दौर में ये सब अकल्पनीय लगता है।
आजादी के दशकों बाद तक इंदिरा गांधी के शासन में ऐसी ही हालत स्कूटर और कार खरीदने की चाह रखने वालों की होती थी। पैसा देकर अग्रिम बुकिंग कराने के बाद भी लोगों के वाहन सुख हासिल करने का ख्वाब सालों तक पूरा नहीं हो पाता था। प्रत्येक परिवार पर वाहन का कोटा निश्चित हुआ करता था। जिनके पास एक कार होती थी वो दूसरी कार लेने की तो सोच भी नहीं सकते थे। ये वो अनैतिक ख्वाब था, जिसका जिक्र ही करना सरकारी फरमानों में वर्जित था।
लाइसेंस और कोटा की पहुंच हमारी रसोई और चूल्हे तक हो चली थी। रसोई गैस का कनेक्शन लेना कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा छोटी-मोटी जंग लड़ना। दरअसल, ऐसा देश में व्याप्त लाइसेंसी राज व्यवस्था व उत्पादों पर सरकारी नियंत्रण के कारण होता था। एक गरीब और सामान्य आदमी को रोटी खाने की तो आजादी थी, मगर सुविधाजनक ढंग से पकाने पर सरकारी नियमों की बंदिशें हर पल निगरानी रखती थीं।
80 और 90 के दशक के मध्य शेयर सूचकांक यदि चार हजार के आसपास भी मंडरा जाता था तो हमें सावन के अंधे की तरह चहुंओर खुशहाली ही खुशहाली नजर आने लगती थी। आर्थिक विकास की दर 3 या 3.5 प्रतिशत हुई तो इसे बहुत माना जाता था। एक आंकड़ा यह भी है कि वर्ष 1951 से 1991 तक भारत की विकास दर की रफ्तार 4% के इर्द-गिर्द ही रही।
फिर दौर आया आर्थिक उदारीकरण का, जिसका मतलब नियमों में ढील, ऐसा माहौल बनाना जिससे देश की आर्थिक सेहत में सुधार हो सके, और हुआ भी वही। नब्बे के दशक की सरकार, जिसने वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलसफे को आंशिक तौर पर ही सही देश में लागू किया।
देसी बाजार का दरवाजा दुनिया के लिए खोला गया, जिससे प्रगति की एक नई गाथा लिखी गई और कुछ वर्षों के भीतर ही आर्थिक स्थिति में परिवर्तन देखने को मिलने लगा। पहली बार शेयर सूचकांक पांच हजार अंक के पार पहुंचा और फिर छः, सात, आठ, नौ, दस… होते होते 16-17 हजार तक पहुंच गया। आर्थिक विकास की दर तीन से चार, फिर पांच, छः, सात, आठ तक जा पहुंची।
उदारीकरण के कालखंड के बाद के दौर पर यदि हम नजर डालें तो विकास और महंगाई दर का ग्राफ कभी गिरता तो कभी उठता नजर आता है। प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों में देश में खुले बाजार को स्वीकार किया जाना, एक बड़ा आर्थिक परिवर्तन था।
जिस वित्तमंत्री (मनमोहन सिंह) के दौर में देश ने प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों से निपटने में कामयाबी हासिल की, उन्हीं मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद परिस्थितियां बदल गईं। आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि वित्त मंत्री मनमोहन सिंह बनाम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में एक अनोखा अंतर है।
यदि हम तथ्यों या आंकड़ों को देखें और उदारीकरण के दौर की वर्तमान दौर से तुलना करें तो तब के पीएम पीवी नरसिम्हा राव की सरकार के कार्यकाल (1991-92 से 1995-96) में जीडीपी की दर 5.1% थी, जबकि मुद्रास्फीति 10.2% रही। इसके बाद 1996 से 1998 तक देवेगौडा और गुजराल की सरकार में जीडीपी 5.8 और महंगाई 8.1 रही। 2004 से 2014 तक कांग्रेस की सरकार में जीडीपी 6% से 7% के बीच रही लेकिन मुद्रास्फीति दर (10.1) में हुई रिकॉर्ड बढ़ोतरी ने आम आदमी की कमर तोड़ दी। वर्ष 2012 से 2014 के बीच में जीडीपी 5% के ग्राफ के ऊपर नहीं जा सकी।
अब सवाल है कि आखिर यूपीए के दस वर्षों में आर्थिक विकास की चाल सुस्त क्यों हुई ? देश में ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ का संकट क्यों आया ? क्या मनमोहन सिंह की नीतियां असरहीन थीं या नीतिगत निर्णयों में उनके अधिकारों को सीमित कर दिया गया था ? सवाल यह भी है कि वित्त मंत्री रहते देश की अर्थनीति को नई दिशा देने वाले मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनने के बाद भला चूक क्यों गए?
लंदन से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ ने अपने संपादकीय में लिखा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की सूई 70 के दशक की ओर यानि विपरीत दिशा में जा रही है। अखबार ने मनमोहन सरकार को कड़े फैसले ना ले पाने में अक्षम करार दिया। इसमें कोई शक नहीं कि यह कांग्रेसनीत यूपीए सरकार पर अखबार द्वारा की गई एक कठोर टिप्पणी थी।
खैर, चर्चाएं तो लंबे समय से आम थीं कि सरकार मनमोहन नहीं बल्कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी चला रहे हैं और मनमोहन सिंह की भूमिका महज मुखौटे की है।
इसके पीछे कारण थे। ऐसा महसूस होने लगा कि देश में फिर से लाइसेंस राज वापस आ रहा हो। 2G, कोयला घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला सहित ढेरों ऐसे मामले सामने आए, जिनमें देशहित को ताक पर रख दिया गया था। उस दौर में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किए गए सर्वेक्षण में उद्योग या कारोबार के लिए दुनिया के कई देश भारत को नापसंद करने लगे।
लेकिन सोलहवीं लोकसभा के लिए 2014 में देश की बेपटरी होती अर्थनीति ने कांग्रेसनीत यूपीए की मनमोहन सरकार को पटरी से उतार दिया। अब समय चक्र घूम रहा है।
देश में नई सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आई। आर्थिक निर्णयों के इतिहास में दो महत्वपूर्ण निर्णय जुड़े- नोटबंदी और जीएसटी। इन दोनों निर्णयों का मूल्यांकन आज भी अलग-अलग ढंग से लोग कर रहे हैं। आलोचक इसकी आलोचना कर रहे हैं और समर्थक इसे सही ठहरा रहे हैं। इन सबके बीच आंकड़ों के धरातल पर देश की आर्थिक गति में स्थायित्व और सुदृढ़ता से इनकार नहीं किया जा सकता है।
वर्तमान की मोदी सरकार के इस कार्यकाल को देखें तो 2014 से 2019 तक जीडीपी 7.3% रही है। मुद्रास्फीति दर पिछले 27 साल में सबसे कम 4.6% पर है। देश में कारोबार करना सुगम हुआ है। करदाताओं में वृद्धि हुई है। विदेशी निवेश की गति अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है। अप्रवासी भारतीयों द्वारा भारत में निवेश करने का ग्राफ उठ रहा है।
भारत की इस प्रगति को देख दुनिया इसे अगली आर्थिक महाशक्ति के रूप में देखने लगी है। इसके बावजूद सरकार के फैसलों और निर्णय लेने की क्षमता पर सवाल उठते रहे हैं जो आज भी बदस्तूर जारी हैं । आलोचना होनी चाहिए। आलोचना और सवाल लोकतंत्र की खूबसूरती हैं, लेकिन तथ्यों से ध्यान भटकाकर की गई आलोचना लोकतंत्र को नुकसान भी पहुंचा सकती है।
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