- 17 Posts
- 41 Comments
टिफिन में बच गए परांठे के आधे टुकड़े और कुतरे हुए अचार की तरह यादें भी जिंदगी के स्कूल से वापस लौटकर आती ही हैं। ऐसी ही किसी अधेड़ दोपहर में जब अचानक बीता हुआ सब कुछ अच्छा लगने लगता है, भोगे हुए यथार्थ भी छप्पन भोग का स्वाद देते हैं, तब मनोविज्ञान उसे ‘नॉस्टैल्जिया’ का नाम देता है। युवा कथाकार और मार्केटिंग मैनेजर दिव्य प्रकाश दुबे का पहला कथा संग्रह हाथ में लेने के कुछ देर बाद ही आपको इस बात का एहसास हो जाता है कि मानवीय मनोविज्ञान की इस स्थिति पर उनकी पकड़ कितनी गहरी और नजर कितनी पैनी है।
हिंदी में प्रचलित ‘युवा लेखक’ के खिचड़ी दाढ़ी और पके बालों के पैमाने के विपरीत दिव्य प्रकाश और उनकी भाषा दोनों ही जवान हैं और शायद इसीलिए इस कथा संग्रह के आवरण और कहानियों के शीर्षक ही नहीं, कथावस्तु में भी (समकालीन समाज की स्वीकार्यता के अनुसार) रोमन लिपि और अंग्रेजी बातचीत कहीं छींटों तो कहीं बौछार के रूप में मौजूद है। गजब तो तब होता है जब आधुनिकता के कलेवर में लिपटी इन कहानियों को पढ़ते हुए आप अपने बचपन, कैशोर्य और जवानी को जीने लगते हैं।
‘टम्र्स एंड कंडीशन्स एप्लाई’ नामक इस कथा संग्रह की सभी 14 कहानियां दरअसल मेरी-तेरी-उसकी यानी हम सबकी जिंदगी का अक्स बनकर इस शिद्दत से उभरने लगती हैं कि पाठक के मन में कभी मार्च-अप्रैल की इम्तहानी मरोड़ उठती है तो कभी नवंबर-दिसंबर की सर्द शामों के रूमानी हादसे हरे हो जाते हैं। टीचरों के धरऊआ नाम, ट्यूशन क्लास की टूटी-फूटी सी मुहब्बत, इश्क में नाकाम रहे गली के कोई स्नेहिल भइया, मुहल्लों की गपबाजियां, बुढ़ौती का प्यार, आशिकी के फर्जी अफसाने और दुनिया में रहकर भी इसके चालूपन से बेखबर लोग… हाय गोली पर परत तो कैंडी की है लेकिन अंदर भरा है वही पुराना बुढिय़ा का चटखारेदार चूरन। वाकई सिरहाने पर रखने लायक किताब लेकिन इसकी असली तासीर महसूस करनी है तो बस, एक-एक कहानी धीरे-धीरे पढि़एगा!
Read Comments