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वतन पर मरने वाले की यही बाकी निशानी है

Media Manish
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साधारण कमरे सरीखा जन्मस्थान और पार्क जैसे स्मारक में ग्रामीणों द्वारा रुपए-रुपए चंदा कर लगाई गई मूर्ति। यह है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक चंद्रशेखर आजाद की जन्मभूमि बदरका

धूप में अलसाया हुआ उन्नाव का यह छोटा सा गाँव भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उस महानायक से संबद्ध है, जिसकी हुंकार ने ब्रिटिश राजसत्ता को भयभीत कर रखा था। यह उन जगहों में से एक है, जिन पर कवियों ने ‘चंदन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है’ जैसी पंक्तियों की रचना की है। हाँ, हम बदरका में हैं, अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की जन्मभूमि में!

बदरका कानपुर से बहुत दूर नहीं है। कानपुर से लखनऊ के रास्ते पर उन्नाव जिले की शुरुआती सीमा में ही दाहिने हाथ पर काले पत्थर का एक प्रवेशद्वार बदरका की तरफ मुड़ने का संकेतक है। गाँव तक पहुँचने के लिए सड़क भी ठीक ही है और गाँव में प्रवेश करते ही सामने है चंद्रशेखर आजाद स्मारक। यहाँ पर समारोह के लिए एक छोटा सा हॉल और स्थानीय निवासी स्व. डॉ. ब्रजकिशोर शुक्ला की पहल पर ग्रामीणों द्वारा रुपए-रुपए चंदा कर लाई गई चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति इस बात का पता देती है, कि आप अंतत: इस महान क्रांतिकारी के ननिहाल में पहुँच चुके हैं।

‘ननिहाल?’ हाँ, बदरका दरअसल उस बालक चंद्रशेखर तिवारी का ननिहाल ही है, जिसका जन्म यहाँ पर 7 जनवरी 1906 को हुआ था (इतिहास के कुछ पन्नों में यह तारीख 23 जुलाई 1906 दर्ज रही है)। यहाँ के मिश्रान मुहल्ले में 18 गुणा 24 का वह झोंपड़ीनुमा घर, जहाँ पर कभी माता जगरानी देवी की कोख से चंद्रशेखर ने जन्म लिया था, आज ‘आजाद मंदिर’ कहलाता है।

अब जरा रोमांचक अतीत से वास्तविक वर्तमान में आएं और साफ-साफ दिखता है कि एक राष्ट्र के रूप में हमने अपनी विरासत को किस तरह धूल-धूसरित होने के लिए छोड़ दिया है। उसी धूल की तरह जो आजाद मंदिर के फर्श पर ही नहीं, माता जगरानी देवी की मूर्ति और उस चबूतरे पर भी बैठती रहती है, जहाँ आजाद का जन्म हुआ था।

दीवालों पर पीले रंग की पुताई और धुंधले पड़ चुके फर्श के पत्थरों वाला यह स्थान भूली-भटकी परिस्थितियों (इसे चंद्रशेखर आजाद के जीवन से जुड़ी तिथियां पढि़ए) के कारण राजनीतिक-सामाजिक जीवन से जुड़े लोगों को आकर्षित तो करता है, लेकिन इसकी साफ-सफाई और देखरेख जैसे ग्रामीणों की ही जिम्मेदारी मान ली गई है। पाठ्यपुस्तकों में महिमामंडित चंद्रशेखर आजाद की गौरवशाली छवि से अलग वास्तविकता यह है कि गाँव वाले इंतजाम न करें तो आजाद मंदिर को खास अवसरों के अलावा फूलमालाओं और अगरबत्तियों तक का राशन मुहैया नहीं होता है।

कहा जाता है और ऐसा सरकारी रिकार्र्डो में भी जरूर दर्ज होगा कि स्वाधीन भारत की बड़ी हस्तियों में स्व. प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से लेकर चंद्रशेखर आजाद के गुरू डॉ. संपूर्णानंद तक ने समय-समय पर इस स्थान के उन्नयन के लिए प्रयास किए, परंतु शायद आजाद की कीमत बदरकावासियों के अलावा कोई नहीं समझ सका। 1988 में मध्यप्रदेश विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल भी नहीं, जिन्होंने आजाद मंदिर का उद्घाटन करते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश चंद्रशेखर आजाद की जन्मभूमि और मध्यप्रदेश लीलाभूमि रही है। यदि उत्तरप्रदेश सरकार नहीं कर सकती तो वह खुद मध्यप्रदेश सरकार द्वारा यहाँ (बदरका में) अंतरराष्ट्रीय स्तर का स्मारक बनवाएंगे। अलबत्ता 2007 में राज्य सरकार द्वारा बदरका को 12 करोड़ रुपयों की मदद का आश्वासन जरूर मिला था, अगर यह आज 2010 में भी ईमानदारी से अमल में आ सके तो 104 साल बाद ही सही, चंद्रशेखर आजाद की जन्मभूमि को राष्ट्रीय स्मारक की भव्यता प्राप्त हो सकेगी।

इस विचलित कर देने वाले परिदृश्य में भी सुकून की बात यह है कि सरकारी तंत्र और ‘महान सामाजिक उद्देश्यों को समर्पित’ गैर सरकारी संगठनों के लिए चंद्रशेखर आजाद की जन्मभूमि भले ही गैरजरूरी हो गई हो, बदरका अपने बबुआ को नहीं भूला है। यह कोई मामूली बात नहीं कि यह गाँव हर साल भरे गले से अपने उस नाती को याद करता है, जिसने ‘दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे’ की स्वरचित पंक्तियों को सच कर दिखाया था। 7 जनवरी को बदरका खुशियों में डूब जाता है तो 27 फरवरी को अल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद में आजाद की चिरसमाधि की घटना इसे रुला जाती है।

कभी मौका मिले तो इधर जरूर आइएगा। इस क्रांतितीर्थ को आपके फूलों की दरकार नहीं, हो सके तो बस एक श्रद्धासुमन चढ़ा दीजिएगा। क्या आपकी आजादी में ‘आजाद’ का इतना हिस्सा भी नहीं बनता?

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