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कलश स्थापना से पहले इस देवी को तो पूजिए!

Media Manish
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नन्हे-नन्हे अल्पविकसित हाथ-पाँव, लगातार व्याप्त अंधकार में मुँदी आँखें और सीने में धड़कता हुआ नन्हा सा दिल। यह मासूम जान अगर जन्म ले पाती तो किसी के आँगन की गुडि़या बन कर हजारों खुशियां बिखेर सकती थी, लेकिन लड़की होना ही उसके लिए अभिशाप बन गया। भ्रूण के लिंग परीक्षण के बाद कुछ विषैले रसायनों और सख्त धातु के उपकरणों ने इस अजन्मी लड़की को कोख में ही टुकड़ों में काट कर दर्दनाक मृत्यु दे दी। एक और बेटी सूरज की पहली किरण देखने से पहले दुनिया से रुखसत हो गई, लेकिन गारंटी से ‘सफाई’ करने वाली डॉक्टर के लिए यह केवल एक और कमाई भरा केस था!

मुमकिन है इस शुरुआत को पढ़ कर आप कहें ‘ओह, देखो पंजाब का एक और मामला सामने आया’, लेकिन गर्भ में ही बेटियों की हत्या का यह बोझ कानपुर के सीने पर भी है। आउटलुक हिंदी पत्रिका द्वारा प्रकाशित एक खोजपूर्ण रिपोर्ट के बाद शहर में फैले इस ‘धंधे’ के कारोबारियों और पाठकों के बीच सनसनी तो फैली, लेकिन क्या कोई परिवर्तन भी सामने आया? ”मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा कुछ हुआ होगा। वे बिल्कुल बेखौफ और संवेदनशून्य थे।” चार साल पहले इस रिपोर्ट को अंजाम देने वाली भाषा सिंह कहती हैं, ”जबकि इस खबर को फाइल करने के बाद खुद मैं कई रातों तक बेचैन रही। मैं लगातार सोचती थी कि कन्या भ्रूण हत्या करने वाले डॉक्टरों की बात दरकिनार भी कर दें तो किसी अजन्मी बच्ची के माँ-बाप इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं कि उसकी गर्भ में हत्या की अनुमति दे दें?”

कोख में पल रही अनाम बच्चियों की हत्याओं (जहाँ खुद परिजन रुपए खर्च कर उनके लिए मौत खरीदते हैं), पैदा हो चुकी बेटियों को अस्पतालों में छोड़ कर लापता होते परिजनों और इन घटनाओं के प्रति लगभग संवेदनशून्य हो चुके सामाजिक ढांचे के बीच एक बार फिर नारी के स्वरूप में शक्ति की उपासना का पर्व नवरात्रि द्वार पर दस्तक दे रहा है। माँ को घर बुलाने के लिए कलश की स्थापना होगी, लेकिन क्या कोख से टुकड़ा-टुकड़ा काट कर फेंक दी गई इन बेटियों के लिए भी कोई प्रायश्चित किया जाएगा? माँ के स्वागत में मंगलगीत गाए जाएंगे, लेकिन क्या कोई जन्म से पहले ही दुत्कार दी गई इन बेटियों की गूंगी चीखें भी सुन सकेगा? अष्टमी के दिन घर-घर में कुवांरी कन्याओं को भोज दिया जाएगा, लेकिन क्या दूध की एक बूंद भी इन अतृप्त आत्माओं के नाम पर छिड़की जाएगी, जो माँ की छाती का स्पर्श तक न पा सकीं?

कहा जा सकता है कि, ‘यह मेरे परिवार का मामला नहींहै और मैं अपनी बेटी से बहुत प्यार करता हूँ’, लेकिन क्या यह निर्लिप्त भाव एक पूरे समाज को कठघरे में खड़ा नहीं कर देता है। भारतीय संस्कृति में तो बेटियाँ सबकी साझी मानी जाती रही हैं और तभी न केवल नवरात्रि पर कन्यापूजन में पास-पड़ोस और गाँव भर से बच्चियों को आमंत्रित कर उनके पाँव धोए जाते रहे हैं बल्कि किसी की बेटी की शादी पूरे गाँव-जवार की बेटी की शादी मानी जाती रही है। तो, आज इस भावना को कैसा डंक मार गया है कि यह सामाजिक संवेदनशीलता निश्चेत पड़ी हुई है?

आखिर गलती कहाँ पर हुई है? ‘जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का निवास होता है’ की परंपरा वाले समाज में तो नारियों का इतना सम्मान होना चाहिए था कि यह दुनिया के लिए मिसाल बन जाता, फिर बेटियाँ बोझ कैसे बन गईं? अगर कन्यादान सात पीढि़यों तक के पितरों की मुक्ति का माध्यम था तो कन्या की गर्भ में हत्या चोरी-छिपे ही सही, स्वीकार्य कैसे हुई?

भारतीय संस्कृति में स्त्री की विभिन्न छवियों को आदिशक्ति के स्वरूपों से जोड़ा गया है। रजतपट पर प्रतिशोध की ज्वाला में जलती कोई नायिका हो अथवा राजनीति में बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय को साकार करने वाली पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी हों, नारी को बेझिझक ‘दुर्गा’ की संज्ञा दी जाती रही है। इसके बावजूद यथार्थ यह है कि नवरात्रि के रूप में शक्ति की उपासना करने वाला यह राष्ट्र महिलाओं पर घरेलू हिंसा और सामाजिक उत्पीड़न से शर्मसार है। यह इसी देश की विडंबना है कि लक्ष्मीपूजा करने वाले हाथ दहेज के लिए गृहलक्ष्मी को जीवित जला देते हैं और नवरात्रि पर कन्याओं के पाँव पखारने की परंपरा कन्या भ्रूण हत्या अथवा कन्या शिशु परित्याग के बढ़ते आंकड़ों से मैली हो जाती है।
यदि स्वतंत्रता संग्राम के समय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव को ब्रिटिश राजसत्ता के विरुद्ध अलख जगाने का माध्यम बना दिया था तो नारियों के प्रति सम्मान जागृत करने के लिए क्रांति की एक ज्वाला 21वीं शताब्दी में भी प्रज्वलित हो सकती है।

तो नवरात्रि में, जब अधिकांश लोग देवी दुर्गा की आराधना के लिए संयम का संकल्प लेते हैं, क्यों न यह संकल्प भी लिया जाए कि भ्रूण लिंग परीक्षण और कन्याओं की गर्भ में हत्या को सामाजिक कलंक मानते हुए इसे हतोत्साहित किया जाएगा। क्यों न नवरात्रि पर नारियल के साथ-साथ दहेज प्रथा की भी बलि दी जाए, जो बेटियों की गर्भ में ही हत्या का सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कारण है। समय के साथ पर्व भी अपना अर्थ बदलें और स्थापित मूर्तियों के साथ ‘जीवित देवियों’ के रूप में उपस्थित बेटियों की भी कद्र की जाए, तो समाज वास्तविक अर्थमें आधुनिक बन सकेगा।
नवरात्रि पर कलश का दीपक जलाने से पहले मन में फैली इस कालिख को मिटाने का कोई दिया जलाएं, तब ही नौ दिनों की इस भक्ति और उपासना का कोई अर्थ सिद्ध हो सकेगा!।

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