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क्या तात्पर्य होता है ..

KALAM KA KAMAL
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हाँ, साधारणतया बहुत सी बातें हम लोग यूँ ही बोल जाया करतें हैं पर ध्यान ही नहीं देते ….ये ऐसी एक – दो बातें ..जैसे …
क्या तात्पर्य होता है जब हम ऐसा कहते हैं कि – क्यों होता है , ऐसा हमारे साथ ..?
हम क्या कहना चाहतें हैं..?
अक्सर हम लोग अपने साथ हुए प्रतिकूल परिणाम अथवा विपरीत परिस्थितियों को देख कर ;ऐसा बोल पड़तें हैं ; कि ” क्यों ऐसा हमारे ही साथ होता है..?
बिना सोचे-विचारे औरों को बोलता देख सुन-कर अक्सर हम बहुत सी ऐसी बातें अपने जीवन में अनुकरण कर लेतें हैं ; जिनको यदि हम विवेक बुद्धि से सोंचें तो पाएंगे कि निःसंदेह हमने जो बोला अथवा जो सोचा वो कितना गलत था ; कितना अनुचित था इत्यादि -इत्यादि .
ऊपर कही बात को पुनः उठाकर विस्तृत चर्चा करना चाहूंगी – ” क्यों होता है , ऐसा हमारे साथ ..? “
इसका क्या मतलब होता है ..? क्या ऐसा (बुरा) किसी और ( दूसरे ) के साथ होना चाहिए ..? वैसे तात्पर्य तो यही निकलता है ;तो जरा सोंचें कि यदि यही हमारी सोंच है तो वह अनुचित , कितनी गन्दी है.परन्तु साधारणतः हममें से किसी कि ऐसी धारणा या ऐसी मानसिकता नहीं होती कि – वो दूसरे के लिए ‘ बुरा’ मांगता या चाहता है ; बस यूँ ही परेशान हुए तो बोल देना होता है और कुछ नहीं … लेकिन हम जब भी कुछ बोलें तो पहले – विवेकपूर्ण विचार कर लें . फिर उपयुक्त शब्दों को ही मुख से बहार निकाले . क्योंकि जब हममे से कोई भी ऐसा बोल रहा होता है तो अन्य व्यक्ति को यही लगता है कि वह.. शायद ऐसा कुछ उसके लिए..तो नहीं … अतः ” हिये तराजू तौल के तब मुख बाहर आणि ” वाली बात जो हमारे पूर्वज ज्ञानी जन बता गएँ हैं ; उनकी नसीहतों को याद रख -कर काम करना चाहिए ; जिससे हमें कभी भी अपनी कही बातों के लिए शर्मसार न होना पड़े.

” घर से खा- पी कर निकलों नहीं तो बाहर कुछ नहीं खाने को मिलेगा “

ये बात – विशेषतः किसी  मेहमान से नहीं कहनी चाहिए ; क्योंकि हो सकता है कि वह पलट कर आपको कुछ ….
सोच हमारी गलत नहीं होतीं ; हमारे बड़े-बुजुर्ग हमेशा यही कहते रहें हैं कि – घर से खा- पी कर ही काम पर निकलना चाहिए -उसकी कई वजह थी – जैसे – कार्य में सफलता , स्वाभाव में सहजता , निर्णय लेने में कुशलता और स्फूर्तिवान बने रहना और काम के बीच में या पहले ही भूख न लगना इत्यादि . परन्तु ये बात पहले किसी समय सही थी कि रास्ते में या दफ़्तर में कुछ जल-पान मिलना मुश्किल होता था लेकिन आज परिस्थितियां बदल गईं हैं आज हर थोड़ी दूर पे दुकानें, ढाबे, रेस्टोरंट्स , होटल्स कैफे-काफी डे के साथ ही ओफ्फिसस में भी कैंटीन और खाने पीने कि बढ़िया व्यवस्था है . काम के बीच में भी ब्रेक होता रहता है चाय -कोफ़ी इत्यादि चलता रहता है . कहने का मतलब कि पहले के ज़माने जैसी परेशानी आज नहीं है . अतः जन – परिवेश को भी ध्यान में रख कर कोई बात बोलनी चाहिए न कि – किसी एक ही लीक पर चलतें जाएँ .
ठहरें विचार करें कि कौन सी बात , किससे , कब और कहाँ कैसे बोलनी आनी चाहिए – यही महत्वपूर्ण हैं .
वास्तव में हम जाने -अनजाने में कब किस बात को , कब किस प्रतिक्रिया को अपने दैनिक व्यवहार में शामिल कर लेतें है जिसका कभी -कभी तो हमें पता ही नहीं चलता है …और यही ” पहचान” हमारी दूसरों के द्वारा हमें मिल जाती है ; शायद वो कितनी ‘ शोभनीय ‘ है…क्या हम जान पातें हैं..?
अतः कुछ भी बोलने से पहले हमें भाषा और शब्दों का विवेकपूर्वक विचार अवश्य करना चाहिए वर्ना क्या पता कब अपमानित होना पड़े या शर्मसार होना पड़े ; क्योंकि लिखा हुआ तो हम फिर भी मिटा सकते हैं सुधार सकतें हैं परन्तु मुख से निकला तीर कभी वापस नहीं आता .
मीनाक्षी श्रीवास्तव

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