“नहीं तगाई कोई रजाई”
प्रस्तुत काव्य रचना में वर्तमान स्थिति उजागर हुई है . गाँव से लेकर शहर तक पढे -लिखे लड़कों का जो हाल है वह किसी से छिपा नहीं है . ऐसे ही कुछ भावास्थिति की अभिव्यक्ति का प्रयत्न किया है । एक माँ जो बेटे संग अपने पौत्रों संग रहने का ख्वाब सजाती है; हौसला बढ़ाकर गया बेटा वर्षों बीत गये ..वह अपनी माँ को लेने नहीं आया. ..पर उस माँ की आस नहीं टूटती है..वह प्रति दिन प्रतीक्षा करती है , और ….अब.. आगे पढिये ..
“नहीं तगाई कोई रजाई”
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नहीं तगाई कोई नयी रजाई
नहीं बुनाई ढीली पड़ी चारपाई
डीवट पर रोज ढिबरी जलाई
आस में बैठी बेचारी माई
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मीठे बोल से भर गया था
जाते – जाते गले लगा था
माँ का हौसला बढ़ा गया था
आशा के दीप जगा गया था
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नहीं जलाया कोई अलाव था
नहीं मंगाया कोई जुराब था
बेटे संग जाने का मन बना था
नया स्वैटर पोते का बुना था
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व्यथित मन क्या किससे गाए
आस में दिन रात बीतते जाए
आखों के तारे सब बदल गए
आस पड़ोस सब जान जाए
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इतने रईस सब बन गए हैं
मातृभूमि को भूल गए हैं
देस विदेस में बस गए हैं
‘लहू के रंग’ बदल गए हैं
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वक्त की चाल अब बदल गई
रोजी रोटी बड़ी कठिन भई
पति-पत्नि मिल करें कमाई
जीवन में सुकून न पड़े दिखाई
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सोच समझ की है लाचारी
मुश्किल में पड़ी है रिश्तेदारी
हाय ! ये कैसी है मारामारी
मजबूरी है या ना समझदारी ?
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मीनाक्षी श्रीवास्तव
(स्वरचित )
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