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गीता उतनी झूठी जितना कृष्ण सच्चा

साधना के पथ पर
साधना के पथ पर
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मान्यवर,
गीता को लोगो पर थोपने को आप परम कर्तव्य कह रहे हैं. इससे बड़ा दुष्कर्म हो ही नहीं सकता. आप कह रहे हैं कि गीता में सब प्रश्नों के जवाब है और दूसरी तरफ गीता को मानने की बात कर रहे हैं. इससे स्पष्ट है कि आप गीता से कोषों दूर है और आप पर भी गीता थोपी गयी है और जो थोपा गया हो वो कभी धर्म या सत्य हो ही नहीं सकता. कृष्ण जितने सत्य है गीता उतनी ही झूठी है क्योंकि वो कृष्ण का अनुभव या अनुभूति है. उसमे आपका क्या है सिवाय सुननाने या रटने के. इसको कुछ ऐसे समझे कि कोई किसी पक्षी को एक पिजड़े में बंद करके उसे लाख उड़ने के गुण सिखाये उसे उड़ने की अनुभूति और अनुभव कभी नहीं हो सकता है. धर्म या गीता कोई धारण कराने की चीज नहीं है बल्कि हम स्वयं अपने जीवन में अनुभूति करते है. परन्तु जीवन से मुड़कर जब हम अपना ध्यान उसकी( ग्रंथों के सिंद्धांतों की ) तरफ करते है तो हम जीवन से मुख मोड़ लेते है, हम धर्म से मुख मोड़ लेते हैं.
दूसरी बात आप गीता को मानने की बात करते है. इससे बड़ा मूर्खता क्या हो सकता है? माना तो उसे जाता है जिसका अस्तित्व नहीं हो या फिर हो और दिखायी नहीं देता हो. क्या आपको गीता के शब्द दिखायी नहीं देते या फिर आप पढ़ नहीं पाते. आपका कहना,
“ये तो वही बात हुई कि कोई कहे कि मै अपनी माँ को नहीं मानता.”
मतलब कि आप अपने माँ को मानते है. जो साक्षात् सामने हो उसे मानने की बात मतलब उसे मृत घोषित करना है या फिर उसके अस्तित्व से इंकार करना है. आप तो जीते-जीते माँ को मार दिए. किसी ज्ञानी के सामने ये बात मत रखियेगगा नहीं तो मूर्खों के लिए हसीं के पात्र बनेंगे. आपका हाल पंडितों की तरह है जो सुनी-सुनायी और पढ़ी-पढाई बातों को रखकर खुद को ज्ञानी साबित करने में लगे रहते है. यह सीखी हुई बातें उतनी ही झूठी है, मृत है जितना तालाब का जल. जो चारों तरफ से घिरा है और उसका स्वामी हर आते-जाते हुए लोगों को दिखाकर कहता है कि देखों यह जल है जिसमे प्रवाह होता है, शीतलता होती है एवं इससे प्यास बुझती है और कोई व्यक्ति उसकी अनुभूति करने के लिए तालाब के जल के निकास के लिए नाली बनाता है तो तालाब के स्वामी को कष्ट होता है क्योंकि वह डरता है कि मेरा इकठा किया हुआ जल ख़त्म न हो जाए और इस तरह से वह खुद और दुसरों को भी जल के गुणों के अनुभव और अनुभति से अलग रखता है. इस प्रकार समय के साथ-साथ वह जल दूषित होता चला जाता है और उसमे कीड़े पड़ जाते हैं. जल के गुणो का अनुभव एवं अनुभूति करना है तो बहने दो उसे बिल्कुल नदी की धारा की तरह . किसी की प्यास बुझा के उसको जल की अनुभूति कराओं. फिर आपको जल के गुण बतलाना नहीं पड़ेगा, सिखाना नहीं पड़ेगा. यही धर्म है.
अंत में आप फिर भगवान् को मानने की बात कहकर उसके होने से इंकार न करें…….यहाँ यह मत समझियेगा की मैं ज्ञानी या गुरु बनने की कोशिश कर रहा हूँ क्योंकि यह सब एक बचपना और मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं क्योंकि यह एक सत्य है कि कोई भी किसी का विशेष गुरु या शिष्य नहीं हो सकता. यदि गुरु के बारे में कुछ नया जानने के इच्छुक हो, यदि आप गुरु के बारे पढ़ी-पढ़ाई बातों को सड़ने से बचाना चाहते है तो उसमे प्रवाह लाये………….और अनुभूति और अनुभव स्वयं प्राप्त करें. एक बार फिर आपको सलाह दूंगा कि आप जे-जे से विनती करें की मेरे ब्लॉग के सॉफ्टवेयर का सुधार करें. गुरु के बारे में जानने के लिए वहाँ मेरा आलेख “मुझ जैसा गुरु या फिर गुरु जैसा मैं”- भाग(१-२) पढ़िए और फिर उसे अपने दिमाग से निकाल दीजिये और फिर नए अनुभूति और अनुभव की तरफ मुड़िये यही धर्म है और यही गीता

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