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बशर्ते कि तुम, तुम हो और जहाँ तुम हो वहाँ कीमत का सवाल ही कहाँ. तुम जो अपनी कीमत कभी गुणात्मक तो कभी मात्रात्मक लगाते रहते हो जिसके लिए समाज में रोटी, कपड़ा, धन, दौलत, सेक्स, सुरक्षा और सम्मान की चाह में नाना प्रकार की सीमायें और व्यवस्थाएं बनाते रहते हो. इन्ही सीमाओं और व्यवस्थाओं की आड़ में तुम, तुम को गिरवी रखते हुए अपने स्वार्थ के वशीभूत मानवीय-ईश्वरीय सीमओं और व्यवस्थाओं को तार-तार करते रहते हो. तुम वह बनने की कोशिश करते हो जो तुम हो ही नहीं…. कभी तुम, तुम से बड़ा बनने की कोशिश तो कभी छोटा बनने की कोशिश, कभी अच्छा बनने की कोशिश तो कभी बुरा बनने की कोशिश और हरेक कोशिश में तुम्हें, तुम को भुलाने की कोशिश. कभी सोचा है तुमने इन सबके बीच तुम कहाँ हो? तुम्हें नहीं लगता कि तुम तुम्हारे साथ-साथ पूरी दुनिया को एक धोखे में रखने की कोशिश करते हो. तुम जो सिर्फ तुम हो यदि समझते हो कि तुम, तुम नहीं तो तुम, तुमसे बेईमानी कर रहे हो. एक ऐसे पहचान को स्थायी बनाने की कोशिश कर रहे हो जो स्थायी है ही नहीं क्योंकि यह पूरी श्रृष्टि गतिमान है. ऐसे में तुम यदि तुमको स्थायी या बंधन में बाँधने की कोशिश करते हो तो विक्षोभ होना अवश्यम्भावी है और जहाँ मन में विक्षोभ पैदा हुआ तो उसमे असंतोष, घृणा, क्रोध जैसे विकार उतपन्न होना स्वाभाविक है. दरअसल तुम अपनी इच्छाओ के अधीन जो अंधाधुध भागे जा रहे हो, तुम जो इस दौड़ को गति मान रहे हो, तुम जो बाह्य वातावरण को अपने अधीन करना चाह रहे हो; वही तो तुम्हारी स्थिरता का प्रतीक है. तुम्हारी गति उस पतंगे की तरह है जो किसी दीपक के चारो तरफ मंडराता रहता और खुद को उससे जलाकर अपना अस्तित्व खो बैठता है. उसका अस्तित्व विहीन होना एक परम सत्य है और तुम्हारा भी. तुम जब कभी भी इस गतिशील श्रृष्टि में किसी तरह की स्थिरता लाने की कोशिश करोगे तो विक्षोभ पैदा होना स्वाभाविक है. फिर तुम्हारी तुम को बदलने की तमाम कोशिश बेकार हो जाती है. या यूँ कहे कि तुम इस दुनिया में खुद की पहचान भुलाकर, किसी अन्य ऐसे पहचान को तुम का नाम देना चाहते हो जो की वह तुम है ही नहीं. यदि तुम, तुम हो तो फिर तुम्हें तुम कहने की जरूरत कैसी? ……………………क्रमशः
(चित्र गूगल इमेज साभार)
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