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मुझे पैदा किया, जिस ज़मीनी हकीक़त ने

साधना के पथ पर
साधना के पथ पर
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अनिल कुमार 'अलीन'कुछ कारणवश, मैं वही रचनाओं को यहाँ पोस्ट किया जिसकी रचना  मैंने आज से लगभग १०-१५ साल पहले की थी. आज जो रचना पोस्ट करने जा रहा हूँ, वह 4 रोज़ पहले की हैं. यह रचना उस विचारधारा के विरुद्ध हैं, जो आये दिन जाने कितने मासूम जिंदगियों को निगल रही हैं. यह सिर्फ एक रचना नहीं बल्कि मेरे तरफ से ऐसे विचारधारा, जो मानवता को ताड़-ताड़ करती हो, को समर्थन करने वालों को एक चेतावनी हैं कि वक्त रहते संभल जाएँ वरना…………………………………………………………………………….



मुझे पैदा किया, जिस ज़मीनी हकीक़त ने


मुझे पैदा किया, जिस ज़मीनी  हकीक़त ने,

अब  वह  कैसे,  आसमां पर  नजर आएगा.


जिसने बेघर किया, चंद सिक्कों की खातिर,

देखता हूँ, वह  अपना  घर  कहाँ  बनाएगा.


जिन फूलों को मसल बैठे, अपनी खुदगर्ज़ी में,

वो  क्योंकर  न अब, अंगारा  नज़र  आएगा.


लुटती हो मुहब्बत, जिस मर्यादा की नगरी में,

कहो  कैसे,  वहाँ  इबादत  नज़र  आएगा.


मुझे  मारा  हैं,  मेरी  बेगैरत  ने  वरना,

भला  मरे  को, तू  क्या  मार  पायेगा.


मैं सूरज नहीं, जो ढल जाऊ शाम होते-होते,

मैं वह सुबह हूँ, जो हर रोज नज़र आएगा.


मार लो पत्थर मुझे, जी  चाहे जितने,

ज़िस्म शीशा नहीं रहा, जो टूट जायेगा.


उतार  फेंको  तन से, शराफत  की  चादर,

नज़र घुमाया अगर, तू नंगा नज़र आएगा.


कब तलक मिटाओगे, दिलों से मुहब्बत को,

कोई कच्चा धागा नहीं, जो यह टूट जायेगा,


बंद करों  अब  भी, आग  लगाना ‘अलीन’,

राख से निकला तो सब खाक नज़र आएगा.

( चित्र गूगल इमेज साभार )

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