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मुझ जैसा गुरु या फिर गुरु जैसा मैं……2

साधना के पथ पर
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मुझ जैसा गुरु या फिर गुरु जैसा मैं……2आइये अब कुछ बात करते हैं कुछ घटनाओं की जिसके माध्यम से गुरु के घटित होने की घटना आसानी से समझी जा सकती है. उम्मीद करता हूँ की आपके अन्दर उठने वाले सवालों और फिर उनके जवाबों की तलाश से………….मेरा यह आलेख सार्थक रूप ले पायेगा……….
शुरुवात करना चाहूँगा माँ के गर्भ से जिसमे जीवन का एक अंकुर फूटता है , पोषण पाता है और एक दिन हमारे बीच जन्म लेता है. क्या यहाँ गुरु के घटित होने से इनकार कर सकते हैं ? जहाँ एक अदृश्य व्यवस्था के अंतर्गत माँ के गर्भ में अंकुर फूटता है और एक दिन वो माँ के गर्भ से बहार निकलता है और एक सम्पूर्ण वृक्ष का रूप धारण करता है. क्या यह किसी एक विशेष गुरु की देन है? यदि सचमुच ऐसा ही है तो.क्या वो गुरु हमारे स्वार्थ, सत्ता और वर्चस्व को उद्देलित करने वाले मन की ऊपज है या फिर वो हमारे अंतः मन में निहित वो परम शक्ति है जिसका हमारे मानसिक प्रवृतियों से कोई सम्बन्ध नहीं या फिर वो हमारे आस-पास घटित होने वाली घटनाओं से ऊपजा एक सीख है. प्रथम बिंदु कि बात करे अर्थात स्वार्थ, सत्ता और वर्चस्व वश किसी को गुरु बनाने की तो निश्चय ही हास्यप्रद, मूर्खतापूर्ण और एक बेईमानी है. दूसरा बिंदु अर्थात अंतः मन में निहित अदृश्य, अतुल्य और अलौकिक परमशक्ति जिससे अन्दर और बाहर की घटायें नियंत्रित होती है, की बात करना मेरे सोच और समझ दोनों के बाहर है…हो सकता है उसे आप मुझसे बेहतर समझते हो. अतः मैं बात करना चाहूँगा तीसरे बिंदु पर जो हमारे आस-पास घटित होती रहती परन्तु उसका सच और झूठ से कोई सम्बन्ध नहीं बल्कि हमारी यह मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि किस घटना को कैसे लेते है. एक बच्चा जो अभी खड़ा होना सीख रहा है…गिरता है संभलता है…..तो क्या हम उस पत्थर के गुरु होने से इनकार करेंगे जिससे वो ठोकर खाकर संभलना सीखता है. उसका पहली बार दीपक से जलना और फिर उससे दूर जाना क्या गुरु के घटित होने कि घटना नहीं है?
अपनी बात एक उदहारण से स्पष्ट करना चाहूँगा. एक शराबी का गुरु शराब बनाने वाला बन जाता है और एक साधू का गुरु शराब से दूर करने वाला. मगर इनमे से किसी एक को सच्चा और दुसरे को झूठा कहना निश्चय ही यह हमारा स्वार्थ और स्वभाववश है. क्या हम इस शराब को गुरु कहने से इंकार करेंगे जिसका प्रभाव एक शराबी के ऊपर देखकर अलग-अलग व्यक्तियों पर अलग-अलग पड़ता है? मेरे कहने का मतलब यह है की सिर्फ राम सच्चा गुरु है रावण नहीं, कहना एक बेईमानी और मुर्खता होगी क्योंकि निश्चय ही गुरु सच और झूठ से परे है. आपके बीच एक छोटी सी कहानी रखना चाहूँगा जिसे विद्यार्थी जीवन के दौरान हमारे एक परम आदरणीय गुरु श्री मनीष चतुर्वेदी जी सुनाया करते थे. एक शराबी के दो बेटे थे जो अक्सर अपने बाप को शराब के नशे में माँ को मारते-पीटते देखा करते थे. इस घटना को देखकर एक सोचता था कि शराब बहुत बुरी चीज है क्योंकि इसे पीने के बाद आदमी होश में नहीं रहता कि वो क्या कर रहा है. दूसरा सोचता था कि बड़ी ही मजेदार चीज है पीने के बाद आदमी क्या चौके-छक्के लगाता है. वो समय भी आता है जब दोनों बड़े होते है और वैसा ही बनते है जैसा वो सोचा करते थे. एक घटना का दो अलग व्यक्तियों पर अलग-अलग प्रभाव यह दर्शाता है कि गुरु सच्चा और झूठा नहीं होता………..या तो वो सिर्फ सच्चा होता है या सिर्फ झूठा या फिर गुरु के घटित होने कि घटना सच और झूठ से परे है………….
नोट:- कृपया इस आलेख को पढ़ने से पहिले इसका प्रथम भाग पढ़ना चाहें………….मुझ जैसा गुरु या फिर गुरु जैसा मैं……१

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