भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य?
साधना के पथ पर
50 Posts
1407 Comments
आइयें कुछ भी कहने से पहले, एक बार भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर नज़र डालते है…”हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, अभिव्यक्ति, बिश्वास , धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिस्था और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ ई० ( मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत २००६ विक्रमी) को एतद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं.” उपर्युक्त भारतीय संविधान की परिकल्पना पढ़ने और भारतीय समाज की वर्तमान स्वरुप का विश्लेषण करने के बाद हम पाते हैं कि भारतीय संविधान की परिकल्पना या तो किताबों में या फिर कुछ जुबानों पर रह गयी है. मुझे नहीं लगता कि भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने कि परिकल्पना पहली बार २६ नवम्बर १९४९ ई० को की गयी. वरन यह प्रयास आदि कल से ही किया जा रहा है. भारत को ही नहीं अपितु पूरे विश्व को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की. तभी तो हमारे ग्रंथों में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात कही गयी है अर्थात पूरे विश्व को एक परिवार बनाने की परिकल्पना जो की तभी संभव है जब पूरे विश्व को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाया जाय. जो कि आदि कल से लेकर अब तक कागजी और जुबानी रही है. इसका मात्र कारण मानवीय व्यव्हार का केन्द्रीयकरण न हो पाना है. जो कि एक जटिल प्रक्रिया है. जिसे सरल बनाने के लिए आदि काल से लेकर अब तक कई प्रयास किये गए. परिणामस्वरुप कई राष्ट्रों, धर्मों, संस्थाओं के साथ-साथ विचारों का उदभव हुवा और इसके साथ ही मानवीय व्यवहार की केन्द्रीयकरण की समस्या और भी जटिल होती गयी. नतीजतन सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और धार्मिक असमानता पाँव पसारती गई और हम इंसान परिवर्तन के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते आये. इसी असामनता की खाई को पाटने के लिए जगत गुरु शंकराचार्य, ईसामसीह, मुहम्मद साहब, महात्मा बुद्ध, गुरुनानक, संत कबीर, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी जैसे विशिष्ट महापुरुषों द्वारा प्रयास किया गया परन्तु समस्याएं आज भी अपने मूल रूप में हैं. कारण स्पष्ट है कि जब कभी भी विचार परिवर्तन कि लहर चलती है तो हमें अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए एक और आधार मिल जाता है. फिर क्या है? धर्म, ईश्वर और समाज के नाम पर हम मानवीय मूल्यों को लूटने का धंधा प्रारंभ कर देते हैं. अब मैं अपनी बात एक जीवन्त उदाहरण के साथ रखने जा रहा हूँ. जो कभी मेरे साथ घटित हुआ और अक्सर उन सभी के साथ घटित होता है जो विचारों का परिवर्तन चाहते है. यह उस समय की बात है जब मैं लगभग १० वर्ष का था. मेरे गाँव के कुछ बुद्धिजीवी लोग, जो सामाजिक विकास से कहीं दूर अपना विकास करने में लगे हुए थे, समाज के विकास पर विचार-विमर्श कर रहे थे. एक दुसरे के विचारों को काटने और अपने विचार को सही सिद्ध करने की होड़ में एक दुसरे पर छीटा-कसी किये जा रहे थे. तभी अचानक मैं उनके बीच पहुंचा और बोला, ” आज हम सभी स्वयं के विकास में लगे हुए है है. क्या ऐसी परिस्थिति में समाज का विकास संभव है? तब उन्होंने मेरे जाती विशेष को गली देते हुए कहा, “अभी तुम बच्चे हो और जीतनी तुम्हारी उम्र है उससे कहीं ज्यादा हमारा तजुर्बा. समाज का विकास तभी संभव जब हम अपने विकास के बारे में सोचें.” चुकी मैं बचपन से ही जातिप्रथा जैसे कुप्रथाओं में बिश्वास नहीं करता. अतः उनकी गली को नज़र-अंदाज़ कर दिया और वहां से मुंह लटकाएं हुए घर को चला आया. परन्तु एक बात मुझे खटकती रही कि कोई व्यक्ति स्वयं को बुद्धिमान साबित करने के लिए अभद्र शब्दों का उपयोग करता है तो निश्चय उसके ज्ञान एवं तजुर्बें पर शक होता है. खैर छोड़िये इन बातों को . वैसे भी मैं उनकी बातों से सहमत था कि समाज का विकास तभी संभव है, जब हम अपने विकास के बारे में सोचें. अतः इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था.परन्तु व्यक्ति के विकास कि परिभाषा को लेकर हम कही न कही एक ग़लतफ़हमी पाले हुए है. यही कारण है कि हम भौतिक रूप से आगे बढ़ते जा रहें है और मानसिक रूप से संकुचित होते जा रहे हैं. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज का विकास करना आज भी एक ज्वलंत मुद्दा है. एक जंजीर उतना ही मजबूत होती है जितनी कि उसकी एक कड़ी कमजोर होती है. समाज एक जंजीर है जिसकी कड़ी हम सभी है. यहाँ एक तरफ खुली और ठंडी रातों में नंगी सड़कों पर लोग भुखमरी और बीमारी से मर रहें है. वहीँ दूसरी तरफ एयर कंडीशनल कमरों में ५६ प्रकार के व्यंजन परोशें जा रहें हैं. ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज का विकास निश्चय ही संदेह के घेरे में आता हैं. क्या हमारे पास पहनने को वस्त्र और आभूषण, चलने के लिए लम्बी गाड़ियाँ, भविष्य की सुरक्षा के लिए बैंक बैलेंस और रहने के लिए आलिशान भवन का होना, हमारे विकास को दर्शाता है या रोशनी में नहाती लम्बी-लम्बी सड़के या फिर ऊँची-ऊँची इमारतों के साथ-साथ तकनीकि रूप से दक्ष प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया का होना? व्यक्ति और समाज के विकास के लिए शिक्षा और ज्ञान को एक प्रमुख घटक माना गया है, जिसे पाकर कोई डाक्टर, कोई इन्जीनियर, कोई आई.ए.एस. के पदों को सुशोभित करता है; क्या इससे विकास को परिभाषित किया जा सकता हैं? यह सारी सुख सुबिधायें जिसका उपयोग, हम जीवन पर्यंत अपने बाहरी स्वरुप को निखारने में करतें हैं, भौतिकता के प्रतीक मात्र है. हम अपनी कमजोरियों और कमियों को छिपानें के लियें, कभी धार्मिक, कभी न्यायिक, कभी आर्थिक तो कभी राजनीतिक प्रणाली को दोषी साबित करने में लगे रहते हैं. पर यह हम भूल जाते है की ये सारी प्रणालियाँ सामाजिक प्रणाली का एक अंग हैं, जिसके हम अभिन्न अवयव है. तो निश्चय ही कमी हमारे अन्दर है. आये दिन धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक बदलाव के नाम पर, हम अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं. इससे हमारा बाहरी स्वरुप तो मजबूत हो जाता है परन्तु आतंरिक रूप उतना ही कमजोर और खोखला होता जाता है. यही कारण है की जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, ऑनर किल्लिंग, दहेज़ प्रथा, भ्रष्टाचार और अंधविश्वास के साथ-साथ धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उन्माद पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहता है. ऐसा गणतंत्र जिसके लोग गण (समूह) हित को नज़र अंदाज़ करते हुए, अपनी हित में लगे हुए हो तो निश्चय ही यह एक सोचनीय विषय है. ऐसे में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की परिकल्पना एक बेईमानी सी लगती है. स्पष्ट है कि व्यक्ति और समाज के बाहरी स्वरुप के साथ-साथ आतंरिक स्वरुप का निर्माण होना परम आवश्यक है. यह तभी संभव है जब हमारे अन्दर आंतरिक जागरूकता हो. तब जाकर व्यक्ति और समाज के विकास को सही अर्थों में परिभाषित किया जा सकता है. जिससे विकास कि सही नीव डाली जा सकती है. फिर भारत को ही नहीं अपितु पुरे विश्व को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाया जा सकता है और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को साकार रूप दिया जा सकता है. वरना वसुधैव कुटुम्बकम की भावना बहुत दूर की चीज है, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की परिकल्पना सदैव ही एक प्रश्न चिन्ह बनी रहेगी.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments