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थाने की एक रात-२ (संस्मरण)

साधना के पथ पर
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थाने की एक रात-२ (संस्मरण) यह उन दिनों की बात है जब मैं अपने प्यार ‘अन्जानी’ की एक झलक पाने के लिए अक्सर आजमगढ़ से फेफना जाया करता था. ऑफिस से छूटने के बाद शाम की शाहगंज से बलिया जाने वाली सवारी गाड़ी से आजमगढ़ से फेफना का सफ़र होता था. फिर तड़के सुबह बलिया से शाहगंज जाने वाली सवारी गाड़ी से फेफना से आजमगढ़ आ जाया करता था. शाम की यात्रा के बाद व सुबह की यात्रा से पहिले पूरी रात फेफना रेलवे स्टेशन से उसके घर के बीच गुजरती था. जिसकी दुरी लगभग १५० मीटर है. मैं उससे सेलफोन पर बाते करते हुए जाने-अन्जाने में इस डेढ़ सौ मीटर की दुरी को डेढ़ सौ से भी अधिक बार तय कर लेता था. पूरी रात बातों ही बातों में कट जाती थी. इस दौरान मैं कभी उसके खिड़की के पास तो कभी घर के सामने  तो कभी रेलवे स्टेशन के किसी बेंच पर लेटा होता. और अन्जानी कभी खिड़की पर, कभी छत पर, कभी सूत काटने वाले चरखे पर तो कभी अपने बिस्तर में होती. यह जो कुछ था, हम दोनों के लिए अपने दिनचर्या से हटकर कुछ अलग था पर वे पल बहुत ही मजेदार और हसीन थे जिसे कभी न वो भुलना चाहती थी और न ही मैं. मेरा इतनी रात को एक लम्बी दुरी तय करके आना उसे बहुत अच्छा लगता था. यह उसके लिए बहुत बड़ी बात थी कि कोई उसके प्यार में उसकी एक झलक पाने के लिए निस्वार्थ भाव से १०० किमी की मीटर की दुरी  तय करके आजमगढ़ से फेफना आता है. यह सब कुछ अजीब था और निश्चय ही आने वाली पीढ़ियों के लिए अविश्वसनीय कि कोई किसी के प्यार में निस्वार्थ भाव से नित्य २०० किमी की दुरी तय करता था.

१३ अगस्त २०११, दिन शुक्रवार. मुझे चोपन, सोनेभाद्र गए हुए बहुत दिन हो चले  थे और अगले दिन सेकण्ड सैटरडे व सन्डे की छुट्टिया थी. अतः शाम को ऑफिस से छूटने के बाद फेफना जाने की बजाय शाम को बस से वाराणसी होते हुए सुबह तक चोपन पहुँच गया. चोपन जहाँ आज भी मेरे मम्मी-पापा, भाभी-भाई व भतीजी-भतीजा रहते हैं. मैं भौतिक रूप से चोपन में था परन्तु मानसिक रूप से कहीं स्टेशन पर तो कहीं अनजानी के खिड़की पर तो कहीं उसके घर की छत पर लटका हुआ था. अतः खुद को वहां देर तक रोक पाना नामुमकिन सा हो गया. मन नहीं माना तो दोपहर को रोडवेज पकड़कर शाम होने से पहिले वाराणसी आ गया. वहाँ से छपरा जाने वाली सवारी गाड़ी से रात को करीब १० बजकर ३० मिनट पर फेफना उतर गया. जिसकी सूचना अन्जानी को पहिले ही सेल फोन से दे चूका था. स्टेशन के बेंच पर बैठे उसके फोन का और वो अपने घर वालों के सोने का इंतज़ार कर रहा थी. करीब ११ बजे होंगे; अन्जानी की काल सेलफोन में देखते ही झट से रिसीव किया. चूँकि उस दिन बारिश हुई थी. सभी लोग छत के ऊपर न सोकर नीचे सोये हुए थे. अतः उसकी हिम्मत न ही खिड़की पर आने की हुई और न ही छत पर. वो मुझसे बिस्तर पर लेटे चादर ओढ़े सेल फोन से धीरे-धीरे बाते कहकर अपनी दिल की उलझन जता दिया. मुझे भी इस बात का संतोष था कि चलो महबूब के दीदार न सही उनके दरख्तों दिवार का दीदार तो हुआ. मैं उससे सेल फोन पर बाते करते हुए स्टेशन से उसका घर और घर से स्टेशन कर रहा था. तभी मेन सड़क से एक बाइक बाई तरफ आती हुई स्टेशन की सड़क पर मेरे पीछे लगभग ३० कदम की दुरी पर रुकी. मैं उसे नज़र अंदाज़ करते हुए अन्जानी से बात करते हुए स्टेशन की तरफ मुड़ गया. तभी पिछसे आवाज़ आई.

‘पकड़ो साले को.”

“पकड़ हरामी को कहीं भाग न जाए.”

पीछे मुड़कर देखा दो पुलिस वाले गाली से मुझे संबोधित करते हुए मेरी तरफ बढ़ रहे थे. कुछ समय के लिए मैं सहम गया और फोन काटकर वही पर रुककर उनको अपने पास आने दिया. मैं उन दिनों अतिरिक्त कार्यक्रम अधिकारी, मनरेगा आजमगढ़ के पद पर कार्यरत था. चूँकि आजमगढ़ मंडल बलिया, मऊ व आजमगढ़ जिलों का मंडल भी है. अतः मेरे पास तीनों जिलों के एस पी, डी एम सहित तमाम उच्चाधिकारियों का सेलफोन नंबर था. सो बिना किसी डर के मैं फेफना रात-बीरात आकर स्टेशन पर ठहरा करता था. ऊपर से नयी-नयी नौकरी पाने का गुरुर चरम सीमा पर था. उन दोनों का मुझे पुकारने का अंदाज़ मुझे बहुत बुरा लगा. सो मेरा चेहरा गुस्से से लाल था. मैं भी चिल्लाते हुए बोला,

“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस तरह मुझसे बात करने की. पता है तुम किससे और क्या बोल रहे हो? चलो अपना नाम और एम्प्लोयी नंबर मुझे बताओ.”

पॉकेट से सेलफोन निकलते हुए बोला, “अभी कप्तान साहब से बात करता हूँ.”

अभी तक जो डर और बौखलाहट इधर थी वो उधर हो गयी. दोनों बाइक स्टार्ट किये और वहां से चलता बने. मैं अब भी कुछ डरा और घबराया हुआ था. सो जाकर स्टेशन के एक बेंच पर चुपचाप बैठ गया. फोन करके सारे मामले की इत्तला अन्जानी को कर दी और उसे होशियार कर दिया. सबसे बड़ा डर मुझे यह लग रहा था कि यदि अन्जानी के घरवालों को फिर से हम दोनों के प्यार की खबर हुई तो जाने अन्जानी पर क्या कहर बरशे. मन एक अनचाही मुशीबत के लिए तैयार नहीं था. वो पल मेरे लिए मुश्किल भरे थे. तभी पुलिस की एक जीप आकर स्टेशन के पास रुकी. जिसमे से ८-९ की संख्या में पुलिस वाले उतरे. मेरे पास आकर सवाल पर सवाल करने लगे.

“कौन हो?” “कहाँ से आये हो.” “यहाँ क्या कर रहे हो.” “अपना आई कार्ड दिखाओ.”

आई कार्ड के नाम पर वोटर आई डी के अलावा कुछ नहीं था. उनके सवालों के जवाब में उलझता गया. घबराहट के मारे चोपन से आने के बजाय आजमगढ़ से आना बता दिया. सिपाहियों ने स्टेशन मास्टर से पूछा तो पता चला कि आजमगढ़ वाली सवारी गाड़ी अभी तो आई नहीं. मेरा जेब चेक किया गया तो वाराणसी टू फेफना टिकट निकला. अब तो और मैं फसता गया. जाने कौन-कौन से आरोप मुझ पर लगाने लगे से सब. कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसे दिन भी देखने होंगे. सब इस्पेक्टर जो मेरे ही उम्र का नौजवान था. बस इतना ही फर्क लग रहा था कि मैं ४८ किलोग्राम का था और वह ८४ किलोग्राम का होगा. यह अलग बात है कि मैं आज ६८ किलोग्राम का हूँ. इससे पहिले जो सिपाही मुझसे बदतमीजी कर के गए थे. दोनों उस  सब-इस्पेक्टर का कान मेरे विरुद्ध भर दिए थे. सो उसका गर्म खून मुझे देखकर खौल उठा था. मुझसे बोला, “क्या बोले थे तुम इन दो सिपाहियों से? कप्तान साहब को फोन लगाने को? लगा साले फोन देखता हूँ तुम्हें कौन बचाता है. तुमको रात को हद से जयादा नशा करके ऑन ड्यूटी सिपाहियों से बदतमीजी करने, नशीले पदार्थों के तस्करी करने के आरोप में अन्दर करूँगा.?” और जाने क्या-क्या आरोप और कानूनी धारा लगाने की बात कहीं उसने मुझे. डर और घबराहट के मारे ठीक से सुन नहीं पाया. उसके द्वारा कप्तान साहब का नाम लेने पर याद आया कि इस समय तो बस उनका ही सहारा है. अतः झट से ज्योंही सेलफोन निकाला. उसने मेरे दोनों सेलफोन ले लिए. कम से कम आधे घंटे तक मेरी मां-बहन करते रहे. ऐसी-ऐसी गालियाँ जो जीवन में पहली बार सुना था और आप सबसे जाहिर करना मुनाशिब नहीं. कुछ एक तो हाई टेक्नालाजी के गालियाँ थी जो मेरे ऊपर से निकल गयी. चूँकि स्टेशन छोटा है. अतः वहां रात को दो-चार ही लोग थे जो मेरे हाल का गवाह थे. परन्तु पुलिस वालों के बीच में कौन पड़े? वैसे भी जिस तरह से पुलिस वाले मेरी शराफत का नंगा नाच किये. उससे तो हरेक कोई यही समझा होगा कि कोई चोर-चुक्का होगा. मैं सोच रहा था काश इतने पर भी मुझे छोड़ दे. तभी सब-इस्पेक्टर ने कहाँ ले चलो इसे थाने. मैं एकदम डरा सहमा हुआ था. मैं समझ गया था कि यदि कुछ कहाँ तो जी भर सब मारेंगे भी और फिर टांगकर थाने ले जायेंगे. सो उनके निर्देश पर चुपचाप पुलिस जीप में बैठ गया.

चूँकि अगले दिन १५ अगस्त, २०११ अर्थात स्वतंत्रता दिवस था. सो वो आस-पास के सभी इलाकों में पुलिस जीप से गश्त लगा रहे थे. उनके मुंह से निकलती हुई गलियां मेरे मन को ऐसे नोच रहे थे जैसे मगरमच्छों के बीच में कोई बन्दर नोचा जाता हो. जीवन में पहली बार हुआ था कि बिना पैसा के उस जीप में बैठकर यात्रा कर रहा था. कमबख्त दो-तीन घंटे के सफ़र में तीनों त्रिलोक घूम लिया था. अब कुछ और घुमने के लिए बचा ही नहीं था. मेरा मन शांत और सर नीचे झुका हुआ था. इसी दौरान उनमें से जाने किसने गाली देते हुए मेरे गाल पर जोर की एक थप्पड़ मारी. ऐसा लगा मानों तीनों लोकों की यात्रा वहीँ ख़त्म हो गयी हो और मैं अपने गंतव्य जगह पर पहुँच गया हूँ. लगभग २ घंटे की जिल्लत भरी जिंदगी जीने के बाद अब कुछ और बाकी नहीं रह गया था. मुझसे थाने में लाकर बैठा दिया गया. जहाँ खुद को पहले से बेहतर और सम्मानित पा रहा था.                लेकिन संघर्ष तो यहाँ भी था.

सारे घटानक्रम को सोचकर मन घबरा रहा था. रात भर नींद नहीं आई . सुबह के ५ बज रहे होंगे. थाने की चाहरदीवारी में एक छोटा सा तालाब था. जहाँ जाकर मैं खड़ा था कभी पक्षियों को देख रहा था तो कभी तालाब के पानी को तो कभी मछलियों को. शायद मन को बहलाने की कोशिश कर रहा था. पर मन जाने किस अनहोनी ख्यालों से डरा हुआ था. युहीं सुबह के लगभग ६ बजकर ३० मिनट हो गए होंगे.

तभी एक सिपाही आकर मेरे पास बोला चलिए साहब बोलाए हैं. यह सुनकर मैं खुद को गौरान्वित महशुस कर रहा था और सोच रहा था कि रात भर में क्या बदल गया कि सिपाही मुझे तुम से आप बोल रहा है? खैर जो कुछ भी हो अब हालत मेरे लिए संतोषजनक थे. चारो तरफ नज़र दौड़ाया मगर वह  सब-इस्पेक्टर नहीं दिखा. रात के अँधेरे में मैं उसे ही थाने का एस ओ समझ बैठा था. वह तो सुबह को एस ओ से मिलने का बाद सारा भेद खुला. मैंने उन्हें अपना पूरा परिचय दिया और उनसे भी वहीँ झूठ बोल दिया जो रात भर सिपाहियों से बोलता रहा कि मेरा गाँव यहाँ से तीन किलोमीटर दुरी पर है रात होने के कारण मैं स्टेशन पर ही रुक गया था. मेरा गाँव पास में होना एक प्लस पॉइंट था. फिर एस ओ साहब ने कहाँ छोडिये जो हुआ सो हुआ. जो कुछ भी हुआ वो सब अनजाने में हुआ. आज के बाद आप भी रात को मत निकलिएगा. आज स्वतंत्रता दिवस है और आप हमारे साथ तिरंगा फहराइए और मिठाई खाइए. फिर आराम से जाइए. मैं भी उनके हाँ में हाँ मिलाया और स्वतंत्रता दिवस की मिठाई खाया. परन्तु मेरी आखें उस चेहरा को ढूढ़ रहीं थी जो रात को जीप में मेरे गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ा था. शायद इसे मालूम नहीं था कि उससे बड़ा घाव तो मेरे मन पर बना हुआ था. परन्तु करता भी तो क्या करता यदि बात खुलती कि मैं रात को स्टेशन पर ठहरा था तो सारा माजरा अन्जानी के घर वालों को समझ में आ जाता और एक बार फिर उसकी मम्मी उसकी पिटाई करती. जो मेरे मन को गवारा न होता और साथ ही यह भी संभव था कि उसके घर वाले यही सही मौका देखकर पुलिस के साथ मिलकर मुझे ऐसा फसाते कि मुझे संभलने का मौका नहीं मिलता और मैं अबतक जेल की हवा खाता रहता. ऐसी संभावना प्रबल इसलिए थी क्योंकि अन्जानी के एक दूर के चाचा उसी थाने में सिपाही थे. जो अबतक तो हमारे रिश्ते से अनभिज्ञ थे. खैर आज भी मैं जेल में हूँ परन्तु ख़ुशी की बात यह है कि वो जेल मेरी अन्जानी के बाहों का है. चारो तरफ प्यार की ऐसी दीवारे हैं जिसे तोड़ना नामुमकिन है. एक ऐसा जेल जिसकी जेलर मेरी पत्नी अन्जानी और सिपाही मेरी ६ महीने की बेटी ‘अलीना’ की मासूम आखें हैं. जिनके लिए हर जख्म हंसते हुए सह जाना चाहता हूँ …………………………

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