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अभी दस दिन पहिले मेरे दूर के हम उम्र चाचा जी ने आरक्षण पर कुछ लिखने को मुझे निर्देशित किया। मैं क्या कुछ लिखूँ सिवाय अपने अनुभवों के? उधर गुजरात में पटेलों द्वारा खुद के आरक्षण मांग को लेकर इलेक्टानिक, प्रिंट मीडिया के साथ-साथ सोशल मीडिया का माहौल आये दिन गरमाए रहता है।
किन्तु इस समस्या, समस्या के कारण एवं समस्या के समाधान को जानने और समझने के लिए यहाँ हमें खुद को तटस्थ रखकर वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था की स्थिति का अवलोकन करना होगा. ….
सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए भारतीय संविधान द्वारा बनायी गयी वर्तमान विशेष वर्ग एवं जातिगत आरक्षण व्यवस्था ही समस्या है। वैसे भी यदि अपाहिज और अपंग रहने से, बिना मेहनत के भोजन-पानी मिलने लगे फिर तो हट्टा-कट्टा स्वस्थ व्यक्ति भी खुद को अपाहिज कहने लगता हैं। बस समस्या यही हैं। इसे विस्तार से समझने के लिए ‘समस्या के कारण’ शीर्षक अंतर्गत अपना अनुभव और अन्वेषण रखता हुँ.
भले ही इस समस्या का कारण वर्तमान आरक्षण व्यवस्था प्रतीत हो रहा हो। किन्तु इसकी जड़ लगभग ३५०० साल पहिले स्थापित मनु स्मृति वर्ण व्यवस्था से पोषण पा रही है और तब तक पाती रहेगी जबतक कि एक ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण, एक क्षत्रिय का लड़का क्षत्रिय ……इत्यादि जन्मजात एवं जातिगत होता रहेगा। यह अपाहिज और अपंग सामाजिक दुर्व्यवस्थता है जो पुरे भारतीय समाज को संवेदन शून्य करते हुए सामाजिक असमानता की खाई चौड़ी करती जा रही है जो समय के साथ कहीं से भी भरती हुई नहीं प्रतीत होती सिवाय कुछ अपवादों के। इसका परिणाम है लोगों के बीच बढ़ता हुआ असंतोष जो नक्सलवाद जैसी विकराल समस्या की जननी भी है। इस मनुवादी व्यवस्था ने जहाँ स्वर्ण जातियों को सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक, शैक्षिक, मानसिक, आध्यात्मिक और वैश्विक रूप से मजबूत बनाया, वही दूसरी तरफ शूद्र एवं पिछड़ी जातियों को कमजोर एवं अपंग।इन्हें स्कूलों, मंदिरों एवं सामाजिक संस्थानों के साथ-साथ समाज से बहिस्कृत रखा गया। यदि कोई कमजोर अपने मेहनत और शिक्षा के बल पर किसी सम्मानित नौकरी के लिए क्वालीफाई भी कर ले तो साक्षात्कार पैनल में बैठे स्वर्ण जातियों के उनके प्रति उदासीनता के कारण फिर उसे अपनी आरम्भिक अवस्था में जाना पड़ता था। भारत की १९४७ की स्वतंत्रता के बाद इस अमानवीय व्यवस्था को संतुलित करने के लिए भारतीय संविधान में अपनी पूर्व की पीढ़ियों द्वारा की गयी गलती से सबक न लेते हुए एक बार पुनः आरक्षण के नाम पर जाति व्यवस्था को लागु किया गया। नतीजतन एक नयी प्रकार की समस्या ने जन्म लिया है और वह यह कि जो अनारक्षित वर्ग में पिछड़े और कमजोर हैं। वे और पिछड़ते जा हैं। यह अलग बात है कि इनकी संख्या अब भी आरक्षित वर्ग से बहुत कम हैं। परन्तु भविष्य में अपने अस्तित्व के संकट को लेकर इनकी चिंता ने खुद के आरक्षण को लेकर सोचने को मजबूर कर दिया। सरकार में आने वाली पार्टियों के पास अपना वोट बैलेंस बनाने के अलावा कोई दूसरा ऐसा उचित पैमाना या मानक नज़र नहीं आता जिससे वे सही जरुरत मंदों को निर्धारित कर सके। जिस परिवार के पास १०० हेक्टयर जमीं और लाखों की संपत्ति है वो भी अपनी संपत्ति का कोई मोल न दिखाकर खुद को गरीब, कमजोर और पिछड़ा बताता है। भले ही घर अनाजों से भरे हो किन्तु पैदावार को शुन्य या फिर कम दर्शाता है ताकि सरकार के तमाम अनुदानों के फायदा उठाने के साथ-साथ ‘कर’ की चोरी कर सके।
इस समस्या का समाधान जातिगत व्यवस्था के रहते हुए खत्म होते प्रतीत नहीं होती क्योंकि पूरी समस्या की जनक यह जातिगत व्यवस्था और मानसिकता है। जिसको ख़त्म करने के लिए कठोर कानून बनाने के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता को फैलाने के लिए व्यापक स्तर पर नवजागरण की शुरुवात करनी होगी। जिसके लिए सरकार और समाज से व्यवस्था परिवर्तन के लिए निम्न कदमों का क्रियान्वयन अपेक्षित है…….
१. जातिगत व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए यह कानून बना दिया जाय कि एक परिवार में कम से कम २-३ अंतर्जातीय विवाह करना अनिवार्य है।
२. सभी जातियों के लिए कोई एक उचित मानक (जो जातिगत न हो) बनाकर पिछड़े और कमजोर लोगों का आकलन किया जाय तथा उनके अनुपात में उन्हें आरक्षण दिया जाय।
३. एक परिवार के किसी एक ही व्यक्ति को नौकरी में आरक्षण दिया जाय। यदि कोई नौकरी में आरक्षण प्राप्त व्यक्ति अपने पुरे परिवार की जिम्मेदारी न उठाकर, परिवार के कुछ सदस्यों को खुद से अलग कर देता है तो इससे आरक्षण को छीनकर उस परिवार के अन्य किसी व्यक्ति को, जो योग्य है और जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो, दे दिया जाय। वरना आरक्षण के लालच में एक व्यक्ति अपने पुरे परिवार को विघिटित कर एक से अधिक परिवार बना सकता है ताकि परिवार के सभी सदयों को आरक्षण मिल सके।
४. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण प्राप्त व्यक्तियों नौकरियों में आरक्षण बंद किया जाय। साथ ही साथ नौकरियों में आरक्षण प्राप्त व्यक्तियों को पदोन्नति में आरक्षण को ख़त्म किया जाय।.
५. एक पीढ़ी को आरक्षण मिलने के उपरान्त दूसरी पीढ़ी को आरक्षण से महरूम रखा जाय।
६. जिनके घर में नौकरी और वंशागत जमीन या फिर वंशागत संपत्ति से अर्जित जमीन है उनके जमीनों को जरुरत मंदों में बराबर बाँट दिया जाय। यदि किसी जमींदार के घर कोई नौकरी करने वाला नहीं है तो उसके घर के किसी व्यक्ति को तभी नौकरी में आरक्षण दिया जाय। जब उसकी जमीं जरुरत मंदों में बँटी हो।
७. मंदिरों, मस्जिदों इत्यादि धर्म स्थलों की संपत्ति को विद्यालय और अस्पताल बनाने में व्यय किया जाय. साथ ही इन धार्मिक स्थलों को किसी एक जाति विशेष के स्वामित्व से मुक्त किया जाय।
अंत में यह व्यवस्था एक साथ एक समय में ततकाल रूप से लागु किया जाय और समाज द्वारा सहर्ष स्वीकार किया जाय। वरना कमजोरों और पिछड़ों को जाति के आधार पर मिलने वाली आरक्षण व्यवस्था पर ऊँगली उठाना कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता
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