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जब मैं रोता था चिल्लाता था (आप बीती)

साधना के पथ पर
साधना के पथ पर
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जब मैं रोता था चिल्लाता थायह उन दिनों की बात है जब मुझे मेरे प्यार को पाने की हरेक कोशिश नाकाम सी हो गयी थी. पारिवारिक और सामाजिक बंधन नामक रस्सियों की पकड़ दिन प्रति दिन मजबूत होती जा रही थी और गर्दन, बस कसने ही वाली  थी. मन की छटपीटाहट चरम सीमा पर थी और दर्द हद से गुजर गया था. मुझे मेरे चारो तरफ घनघोर अँधेरा दिख रहा था और जीना व्यर्थ सा प्रतीत हो रहा था. अबतक बेखबर था कि मैं लोगों के लिए एक मजाक का साधन मात्र हूँ जिन्हें मैं अपना हितैषी मान बैठा था. खुद को मेरे हितैषी कहने वाले अधिकतर लोग सामने सहानुभूति व्यक्त करते और मेरे पीठ-पीछे मेरा मजाक उड़ाते. कार्यालय हो या घर, बस हो या ट्रेन मेरा अतीत आसूं बनकर मेरे आखों से छलकता जा रहा था और दर्द उतना ही बढ़ता जा रहा था. लोग मेरे जख्मों को कुरेद-कुरेद कर मजा लेते थे. आखों से पानी ऐसे गिरते थे जैसे गटर से गंगा में पुरे शहर की गन्दगी गिरती है. मन, अपना खुराक न पाकर हताश था और निराश भी. उसे बहलाने का मतलब है तूफानों को हवा का नाम देकर गलतफहमी पालना. उन्हीं दिनों अपने किसी ख़ास मित्र की सलाह पर गूगल ब्लागस्पाट पर ब्लागिंग चालू किया. यहाँ मुझे पढ़ने वाला कोई नहीं था. अपने अन्दर पल रहे दर्द को शब्द देता गया परन्तु मलहम से महरूम रहा. उसी समय मलहम की तलाश ने मुझे जागरण जन्शन परिवार और नवभारत टाइम्स ब्लॉग्गिंग तक पहुँचाया. जहाँ काफी हद तक मेरे मन को उसकी खुराक मिल जाती और अक्सर मेरे जख्म पर मलहम लगाने वाले दो-चार लोग मिल जाते. जिनकी हमदर्दी और सहानुभति से कुछ दिन जीने को बल मिल गया. परन्तु मैं अब भी चलता फिरता लाश था जो कभी भी गिरकर मिटटी में मिलने को तैयार था.
उन्हीं दिनों जागरण जंक्शन पर मुझे तीन मित्र मिले-आनंद प्रवीन, संदीप झा और गरिमा( काल्पनिक नाम). अक्सर इन तीनों से अपनी बाते सेलफोन के माध्यम से रखा करता था. जब भी इनसे बाते होती बच्चों की तरह फुट-फुट कर रोने लगता था. तीनों ही मेरे पागलपन को सहे और मेरी हर संभव मदद किये. परन्तु गरिमा के लिए मुझे लम्बे समय तक झेलना मुश्किल था. अतः वह मुझसे बाते करना बंद कर दी. मैं भी दो-चार बार उसका नंबर लगाने के बाद कोई रिस्पांस न होने पर उससे बाते बंद करना मुनाशिब समझा. तब से लेकर आजतक जबकि आज मेरी जिंदगी में मेरा प्यार अनजानी मेरे साथ है गरिमा से बात करना मुनाशिब नहीं समझा और न ही उसने मेरी सफलता पर मुझे बधाई देना मुनाशिब समझी. यह अलग बात है कि आज भी मैं उसके किसी लेख या रचना पसंद या नापसंद आने पर उसके ब्लॉग पर कमेन्ट कर आता हूँ. मैं अपने लेख के माध्यम से उसे धन्यवाद देना चाहूँगा उन मुश्किलों भरे पलों में मेरे साथ देने के लिए जिनमे उसने मेरा हौशला बढाया ताकि मैं अपने प्यार को पा सकू. विशेष रूप से धन्यवाद देना चाहूँगा कि आनंद और संदीप जैसे मित्रों का जो मुश्किल के घडी में मेरा साथ कभी नहीं छोड़े और आज भी मेरे साथ. यक़ीनन मैं अनजानी को अपने सामर्थ्य के बल पर पाया हूँ परन्तु इस सामर्थ्य की मुझे खबर नहीं थी. मैं धन्यवाद देना चाहूँगा प्रवीन और संदीप जैसे मित्रों का जिन का मेरे सामर्थ्य पर विश्वास था और जिनके प्रोत्साहन से मैं वो कर दिखाया जिसकी उम्मीद मुझे कभी थी ही नहीं. आज इन सबके प्रोत्साहन का परिणाम है कि अनजानी मेरे साथ है और हमारे प्यार की बगिया में एक नन्हा-सा ‘अलीना’ नामक फुल मुस्कुरा रहा है. मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ उस पल को जो मेरे पागलपन का साक्षी है. मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ उन सबका जो मुझसे न जुड़कर भी, उनकी दुआए मेरे साथ थी. मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ उन सबका भी जो खुद को मेरा हितैषी बताये तो परन्तु मेरे मुश्किल घडी में मेरा साथ छोड़ दिए. जब कभी वो पल याद आते हैं तो आज हसीं आती हैं मेरे पागलपन पर जब अनजानी को पाने के लिए रोता था चिल्लाता था. जबकि हकीकत तो यह है कि मैं उसे कभी खोया ही नहीं था. वो हरेक पल मेरे साथ थी और आज भी मेरे साथ है.
०५-०१-२०१४ ……………………………………………………………………………………………………अनिल कुमार ‘अलीन’
( कृपया मेरी प्रेम कहानी पढ़ने के लिए टैग लिंक पर क्लिक करें)अलीना-हमारी प्यारी सी बेटी

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