वृन्दावन में १४ अक्टूबर २०१६ को आयोजित होने वाले नास्तिक सम्मलेन को असफ़ल बनाने के लिए जो कुछ भी हुआ , वह निश्चय ही असंवैधानिक होने के साथ-साथ अमानवीय था. किन्तु अप्रत्याशित बिलकुल नहीं और न ही यह कोई नई बात हुई. सभ्यताओं के विकास और सत्ता के चाह में धर्म का सहारा लेकर सदियों से कमजोरों, प्रगतिवादियों और आदिवासियों का शोषण होते आया है और आज भी यह जारी है. उत्तर वैदिक काल में यदि कोई शुद्र वेद के मंत्र भी सुन ले तो उसके कानों में खौलता हुआ तेल डाल दिया जाता था और गुप्त काल में तो नास्तिकों और बौद्धों का निर्मम कत्लेआम किया गया. खैर छोड़िये इन सब बातों को क्योंकि गलत-सही घटनाओं से भरे होने के कारण मैं भूत/इतिहास को तवज्जु नहीं देता। परंतु वर्तमान जो आँखों के सामने हैं उससे इंकार नहीं किया जा सकता. एक बात तो तय है कि बुद्धिजीवी चाहे कितना ही पारदर्शी संविधान/कानून/नियम बना ले। समाज/प्रशासन उसे अपने स्वार्थ, सत्ता और वर्चस्व अनुसार ढाल लेता है। स्वामी बालेंदु के विचारों व क्रियाकलापों का विरोध ऐसी ही व्यवस्था का परिणाम है। जहाँ पब्लिक, पुलिस और प्रेस एक साथ है. क्या संविधान इस बात का अधिकार देता है कि एक बहुसंख्यक समुदाय अपनी आस्था और विश्वास को किसी अल्पसंख्यक समुदाय के ऊपर जबरदस्ती थोपे सके? वह भी इस तरह कि पब्लिक, पुलिस और प्रेस तीनों एक साथ होकर किसी के संवैधानिक अधिकारों का हनन करते रहे। यदि ऐसा है फिर वह दिन दूर नहीं जब संवैधानिक अधिकारों का हनन करते हुए सभी अल्पसंख्यकों से उनके अधिकार छीन लिए जाएंगे। भारतीय संविधान की बात करें तो निम्न बातें स्पष्ट है – १. भारतीय संविधान के भाग-३ अनुच्छेद-१४ सभी व्यक्तियों को विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण प्रदान करता है। यहाँ ‘व्यक्ति’ शब्द से तात्पर्य नागरिकों, अनागरिकों, और विधिक व्यक्तियों से हैं। भारतीय संविधान के भाग-३ अनुच्छेद-१५ राज्य धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेद नहीं कर सकता। यहाँ ‘राज्य’ से तात्पर्य भारत की सरकार एवम संसद, राज्यों की सरकारें, सभी स्थानीय प्राधिकारी और अन्य प्राधिकारी से है। ऐसे में बालेंदु स्वामी के सम्मेलन पर इसलिए प्रतिबन्ध लगाया जाता है जाता है कि वे नास्तिक है या फिर नास्तिकता का प्रचार कर रहे हैं तो निश्चय ही उनके साथ भेद हो रहा हैं। और भारतीय संविधान के उपरोक्त दोनों अधिकारों का हनन होता है। भारतीय संविधान के भाग-३ अनुच्छेद-१३ में उच्चतम न्यायालय को संवैधानिक अधिकारों का प्रहरी बनाया गया है। ऐसे में क्या संवैधानिक अधिकारों की रक्षा सम्भव है जबकि उसका क्रियान्वयन इसी समाज द्वारा किया जा रहा है जहाँ किसी एक विचारधारा की बाहुल्यता है? २. भारतीय संविधान के भाग-३ अनुच्छेद-१९(१) द्वारा एक व्यक्ति को निम्न स्वतंत्रता दी गयी है – A. वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता B. शांतिपूर्ण एवं निरायुध सम्मलेन की स्वतंत्रता C. संगठन एवं संघ बनाने की स्वतंत्रता ऐसे में स्वामी बालेंदु को उपरोक्त तीनों कार्यों से रोका जाता है तो निश्चय ही उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन होता है. ३. भारतीय संविधान के भाग-३ अनुच्छेद-२५(१) प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने का अधिकार देता है। ऐसे में स्वामी बालेंदु को उनकी आस्था और विश्वास से रोका जाता है तो निश्चय ही उनके उपरोक्त संवैधानिक अधिकारों का हनन हो रहा है। ४. भारतीय संविधान के भाग-३ अनुच्छेद- २९ भारत के प्रत्येक नागरिक को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसके बनाये रखने का अधिकार है। उल्लेखनीय है कि यहाँ नागरिक से तात्पर्य सभी वर्गों से है। चाहे वे किसी विशेष धर्म से हो या न हो। ऐसे में स्वामी बालेंदु को उपरोक्त से रोक जाता है तो निश्चय ही उनके इस संवैधानिक अधिकार का भी हनन हो रहा है। ५.भारतीय संविधान के भाग-४ अनुच्छेद-५१(क)(८) अनुसार प्रत्येक नागरिक को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करना चाहिए। ऐसे में यदि स्वामी बालेंदु को उक्त कार्यों से रोक जा रहा है तो निश्चय उनके मौलिक कर्तव्यों का गाला घोटा जा रहा है।
यहाँ स्पष्ट है कि एक नास्तिक या स्वामी बालेंदु किसी आस्तिक के आस्था या विश्वास को रोकने नहीं जाते है और न ही उनके सम्मेलनों को रोकने के लिए पब्लिक, पुलिस और प्रेस का सहारा लेते हैं. किन्तु यह सब स्वामी बालेंदु के साथ किया जा रहा है। यहाँ स्पष्ट है कि स्वामी बालेंदु का विरोध/ उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन सिर्फ इसलिए किया जा रहा है कि वह एक नास्तिक है और उनकी संख्या कुछ गिनती में हैं । …सूफ़ी ध्यान श्री
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