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2019 की खातिर!

Mithilesh's Pen
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कई विश्लेषक खूब जोर-शोर से अमित शाह के दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाये जाने पर किन्तु-परन्तु करने में लगे हुए थे, किन्तु पटकथा लगभग तैयार ही थी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुहर के बाद भाजपा की चुनावी प्रक्रिया एक औपचारिकता भर ही थी. इस क्रम में, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपने दूसरे कार्यकाल के लिए निर्विरोध चुन लिए गए हैं. उतार-चढ़ाव से भरे अपने कार्यकाल में अमित शाह ने अपने नाम जो बड़ी उपलब्धियां दर्ज की हैं, उनमें भाजपा के सदस्यों की संख्या में अभूतपूर्व बृद्धि और चार राज्यों में पार्टी का सत्ता में आना है. हालाँकि, दिल्ली की हार और उसके बाद बिहार में सब कुछ झोंक देने के बाद वहां की पराजय ने इस योद्धा के स्वर मद्धम कर दिए थे तो उनके खिलाफ पार्टी में एकबारगी सुगबुगाहट भी सुनायी दी. हालाँकि, संघ ने तमाम विकल्पों पर विचार-विमर्श अवश्य ही किया होगा और उसके साथ भाजपा के वर्तमान कर्णधारों को भी यह साफ़ अहसास रहा होगा कि अमित शाह को हटाने का मतलब खुद अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा करना होगा और उससे भी बड़ी बात यह होगी कि शाह को हटाने के बाद नरेंद्र मोदी के कमजोर होने का मेसेज पार्टी और बाहर के विरोधियों में जाता, जिससे मोदी के अब तक अक्षुण्ण करिश्मे पर खुद ही धब्बा लगाने वाली बात होती. इसके अतिरिक्त, शाह बहुत ऊर्जावान और मेहनती नेता माने जाते हैं. जिन राज्यों में भाजपा कमज़ोर है, वहां पार्टी का जनाधार बनाने के लिए उन्होंने रणनीति बना रखी है. साथ ही साथ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वे पुराने सहयोगी और विश्वासपात्र हैं, दोनों में अच्छी समझदारी है और मोदी फ़िलहाल और किसी को पार्टी अध्यक्ष के रूप में नहीं देखना चाहते. 
शाह के पक्ष में एक मास्टर-स्ट्रोक यह भी रही कि अगर अमित शाह के बजाय किसी और नाम पर विचार भी किया जाता तो इसका अर्थ आडवाणी और जोशी की बग़ावत को महत्व देना होता. मतलब, पुराने जिन्न को बोतल से बाहर निकलने का रिस्क फिलहाल लेना ठीक नहीं रहता! इस तरह शाह के नाम पर अंतिम मुहर लग गई और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्विटर पर उन्हें चिर-परिचित अंदाज में बधाई देने में देर नहीं की. हालाँकि, पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी इस कार्यक्रम में पार्टी मुख्यालय में मौजूद नहीं थे, जो पूर्व में शाह के कामकाज को लेकर खुले तौर पर अप्रसन्नता व्यक्त कर चुके हैं. शाह के लिए यह तीन वर्ष का पूर्ण कार्यकाल होगा. शाह मई 2014 में उस समय भाजपा अध्यक्ष बने थे जब तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह सरकार में शामिल हो गए थे. एक बार फिर अमित शाह की ताजपोशी से संघ और भाजपा ने जिस एक लक्ष्य को पूरा किया है, वह निश्चित रूप से मोदी सरकार को मजबूती देने का है. आज जब सरकार और पार्टी सहिष्णुता-असहिष्णुता से लेकर जातिवादी मुद्दों और भारत-पाकिस्तान के संबंधों में उलझी हुई है, तब यह साफ़ है कि पार्टी में किसी भी तरह का आतंरिक संघर्ष बाहरी मोर्चों पर नरेंद्र मोदी की साख कमजोर कर सकता था, जिससे बचा जाना ही उचित था और वही किया गया. इसके अतिरिक्त, जिस दुसरे लक्ष्य की ओर ध्यान दिया गया है वह 2016 और 2017 में आने वाले कई विधानसभा चुनाव जीतने का है. विशेषकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अमित शाह की लोकसभा के दौरान से बनाई गयी पकड़ संघीय हलकों में मजबूत मानी जा रही है. अमित शाह ने इस दौरान उत्तर प्रदेश की राजनीति को गहरे से समझा है और उनका पूरा प्रयास यही रहेगा कि इस बड़े राज्य को जीतकर नरेंद्र मोदी के कन्धों को 2019 के लिए सशक्त किया जाय! 
जाहिर है, इन तमाम परिस्थितियों में अमित शाह से बेहतर कोई अन्य विकल्प नहीं था और इस स्वाभाविक फैसले की उम्मीद भी लगभग सबको ही थी. देखने वाली बात होगी कि आने वाले विधानसभा चुनावों में अमित शाह भाजपा का वोट प्रतिशत किस हद तक बढ़ा पाते हैं और कहाँ-कहाँ सरकार गठित करने में सफल रहते हैं! साफ़ है कि इस बार अमित शाह के सामने दोहरी चुनौतियां हैं, जिनमें  नरेंद्र मोदी की ताकत का इस्तेमाल करने की जगह मोदी को सरकार चलाने में ताकत देना है. पहले अमित शाह के नाम जितनी भी उपलब्धियां दर्ज थीं, निश्चित रूप से मोदी नाम का चमत्कार तब कहीं ज्यादा था. देखना दिलचस्प रहेगा कि 2015 में दिल्ली और बिहार चुनाव में हार के बाद क्या वाकई अमित शाह के पास कोई ऐसी ठोस योजना है जो 2016 में बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल तो 2017 में यूपी के साथ पंजाब और गुजरात तक में पार्टी की जमीन बचा सकें. साफ़ है कि गुजरात में पाटीदार समाज भाजपा से बेहद नाराज चल रहा है और हार्दिक पटेल के रूप में भाजपा का एक विरोधी माहौल तो खड़ा हुआ ही है. हालाँकि, इस आंकलन के साथ यह बात भी सच है कि  दिल्ली और बिहार दोनों चुनावों में कहीं न कहीं अमित शाह की हार से संघ और भाजपा के कई खेमों में एक छुपी हुई ख़ुशी भी थी! इसका कारण सिर्फ यही था कि प्रधानमंत्री के साथ-साथ अमित शाह भी असीमित ताकत का केंद्र बनते जा रहे थे और इस बाबत कई भाजपा नेता और कार्यकर्ताओं को उन्होंने स्वभावतः नाराज कर लिया था. कहा तो यहाँ तक जा रहा था कि भाजपा के वरिष्ठ नेताओं तक के पत्र को जवाब देना तो दूर, उनसे मिलने-जुलने में भी वह बेरूखी से टालमटोल करते थे. दिल्ली के बाद बिहार में हुई हार से भाजपा नेताओं के साथ संघ के भी गिले-शिकवे निश्चित रूप से दूर हुए होंगे और अब चूँकि भाजपा और संघ की साख का सवाल आन खड़ा हुआ है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि अमित शाह को प्रचारक स्तर के साथ-साथ कार्यकर्त्ता स्तर पर भी बेहतर सहयोग मिलेगा! चूँकि अब निशाना 2019 का है, इसलिए इस भय से अमित शाह को सहयोग किया जायेगा कि कहीं भाजपा की लोकसभा में संभावनाएं धूमिल न हो जाएँ! बिहार चुनाव की उदासी के बाद, निश्चित रूप से इस समीकरण को समझकर अमित शाह मुस्करा रहे होंगे!
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