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तनु, मनु और सामाजिक बदलाव

Mithilesh's Pen
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विश्व में सर्वाधिक फिल्में बनाने वालीं इंडस्ट्री बॉलीवुड में बेहद कम ऐसी फिल्में बनती हैं, जो अपने मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ साहित्यिक उद्देश्य को भी पूरा करती हैं. साहित्य को समाज का दर्पण बताया गया है और यह बेहद आवश्यक है कि किसी दर्पण की ही भांति समाज को उसका बदलता चेहरा दिखाने की कोशिश करते रहा जाय. पत्नी के काफी ज़ोर देने पर ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ की टिकट लेकर हम लोगों का सिनेमा जाना, कतई निराशाजनक नहीं रहा. हालाँकि, पिछले कुछ दिनों से आ रही फिल्मों को देखकर लगातार निराशा हो रही थी. कभी प्रयोगात्मक फिल्में बनाने के नाम पर, तो कभी चालू किस्म की मसाला फिल्मों के नाम पर दर्शकों का भेजा- फ्राय करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गयी. सच कहूँ तो इस पूरी फिल्म को देखते समय, सोचने समझने की जरूरत ही नहीं पड़ी और कथानक का एक-एक भाग स्वतः ही समझ आता गया. बिना तनाव के गुदगुदाते हुए इस फिल्म ने आज की ज्वलंत समस्या को बेहद मजबूती से सामने रखा. बॉलीवुड में अधिकतर रोमांटिक या रोमांटिक कॉमेडी फिल्मों में लड़का-लड़की को आख़िर में एक साथ दिखा देते हैं और फिल्म वहीं ख़त्म हो जाती है. लेकिन क्या फिल्में हमें उसके आगे की कहानी बताती हैं? आम ज़िंदगी के कई जोड़े शादी कर लेते हैं, लेकिन कुछ सालों में ही उनका रोमांस ख़त्म होने लगता है. इसके बाद दोनों एक-दूसरे की उन आदतों से वाकिफ होते हैं जो उन्हें शादी से पहले नहीं पता थीं या पता होते हुए भी वह उन आदतों को अनदेखा कर दिया करते थे. आज जब तमाम रिश्ते नाते बिखर रहे हैं, ऐसे में सात जन्मों का मजबूत रिश्ता समझा जाने वाला पति-पत्नी का बंधन भी इससे अछूता नहीं है. सात जन्म तो क्या, सात साल भी इन रिश्तों को निभाना आज की पीढ़ी के लिए कठिनतम कार्य साबित हो रहा है. फिल्म की कहानी हिमांशु शर्मा ने लिखी है जो बेहतरीन है और इस कहानी में एक तरफ जहाँ आज की लड़कियों को रूढ़िवादिता से मुक्त होते हुए अपने जीवन के बारे में स्वतंत्र निर्णय लेते हुए दिखाया गया है, वहीं ‘वफ़ा’ की भारतीय परंपरा के प्रति भी फिल्म अपना असर छोड़ जाती है. चार साल की शादी शुदा ज़िन्दगी में एक-दुसरे से परेशान हो चुके तनु और मनु एकबारगी तो अलग चलने का फैसला कर लेते हैं, किन्तु फिल्म की अभिनेत्री का वह डायलॉग आपका दिल छू लेगा, जिसमें मनु कहती है “वाह शर्मा जी! हम थोड़े से बेवफा क्या हुए, आप तो बदचलन हो गए!”
देखा जाय तो इस संवाद में बदलते समाज की आहट स्पष्ट सुनायी देती है. लड़का, लड़की अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी से बेहद जल्दी बोर होने लगे हैं और इस क्रम में बेवफाई और बदचलनी की राह चुन लेना, उनके लिए बेहद साधारण सी बात बन गयी है. और इसके बाद, तलाक और अकेलापन. फिर कुछ दिन बाद, संभवतः दूसरी शादी, लिव-इन  और फिर वही असंतुष्टि. इस क्रम में, पढ़े-लिखे युवा समझ ही नहीं पाते कि बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स और प्रोग्राम्स को हल करने की क्षमता रखने वाले वह लोग शादीशुदा ज़िन्दगी के दो-चार साल में उलझ क्यों जाते हैं और न सिर्फ उलझ जाते हैं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत रूप से भारी असुरक्षा को जानबूझकर सब्सक्राइब कर लेते हैं. आश्चर्य की बात है कि, यह समस्त ऊहापोह शादी के 5 साल के दौरान ही उत्पन्न होती है. यदि, इतने साल बेहतरीन सामंजस्य बिठाने की कोशिश पति पत्नी की ओर से होती है और वह एक दुसरे को समय के साथ सम्मान देते हैं तो फिर यह रिश्ता चल जाता है. संयुक्त परिवार के दौर में सामाजिक दबाव, ऐसे रिश्तों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, लेकिन बदलता समय नयी चुनौतियों के साथ आया है. हालाँकि, कुछ मूलभूत संशोधन किया जाय, तो संयुक्त परिवार नामक संस्था औचित्यविहीन नहीं हुई है. संशोधन जैसे, व्यक्तिगत आर्थिक आज़ादी को सुनिश्चित कैसे किया जाय और नारी के आज़ादी अभियान के साथ परंपरा का तालमेल किस प्रकार बिठाया जाय. इसके अतिरिक्त भी विचारक कई अन्य व्यवहारिक उपायों पर चिंतन कर सकते हैं. बिडम्बना यह है कि परंपरा और आधुनिक बदलाव को कुछ विचारक परस्पर विरोधी समझने की भूल करते हैं, जबकि ‘बदलाव’ किसी पुरानी ईमारत के रख-रखाव जितना ही आवश्यक होता है. यही कारण है कि बदलते सामाजिक परिवेश को, विशेषकर नारी के सन्दर्भ में हमारे समाज में स्वीकृति आने में अपेक्षाकृत ज्यादा समय लग रहा है. ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ जैसी फिल्में प्रश्न को उठाती जरूर हैं, किन्तु इन प्रश्नों का उत्तर तो समाज और सामाजिक चिंतकों को ही ढूंढना होगा. नारी के साथ रिश्तों को लेकर हमारे भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी रूढ़िवादी बना हुआ है, जबकि वैश्विक बदलावों के बढ़ते असर ने तनु और दत्तो जैसी बिंदास, आज़ाद ख़याल लड़कियों की संख्या में बड़ा इजाफा किया है. हालाँकि, इन प्रश्नों का वन-शॉट-सॉल्यूशन ढूंढने की उम्मीद पालना बचकाना ही है, किन्तु प्रयास जारी रखना ही मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है और यह फिल्म भी इस तरह की सार्थक उम्मीद की एक कोशिश दिखती है. अपने तरीके से, स्पष्ट बात कहती हुई…. !!
– मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Changing in social culture and bollywood, hindi article by mithilesh

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