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दिवाली का भारतीय अर्थशास्त्र एवं चीन संग आधुनिक व्यापार!

Mithilesh's Pen
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दोनों शब्दों का इन दिनों खूब तालमेल नज़र आ रहा है. मीडिया से लेकर सोशल मीडिया और भारत से लेकर चीन तक इस उहापोह पर कड़ी नज़र भी रखी जा रही है. इस बात में रत्ती भर भी संदेह नहीं होना चाहिए कि वगैर राष्ट्रीय भावना के कोई राष्ट्र लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता और हमारे त्यौहार निश्चित रूप से लोगों को सामाजिक रूप से जोड़कर राष्ट्रीय भाव को मजबूत ही करते हैं. दिवाली का त्यौहार तो न केवल इस साल, बल्कि पिछले कई सालों से राष्ट्रीय भावना को दर्शाने का प्रतीक बना हुआ है और उसका कारण है चीन द्वारा निर्मित सामानों की हमारे भारतीय बाजार में बेतहाशा ख़पत. ऊपर से देखने पर कोई सामान्य व्यक्ति इस बात का अंदाजा ही नहीं लगा सकता है कि चीन में निर्मित सामानों ने भारत के बेहद महत्वपूर्ण त्यौहार दिवाली के अर्थशास्त्र को ही बिगाड़ कर रख दिया है. पिछले दिनों एक साप्ताहिक संगोष्ठी में गया तो संयोग से वहां ‘दिवाली का भारतीय अर्थशास्त्र’ विषय पर ही चर्चा चल रही थी. किस तरह से इस त्यौहार में कुम्भकार, पुताई करने वाले मजदूर, फूल बेचने वाले माली, मिठाई बनाने वाले हलवाई, कपास से रूई निकालने वाले जुलाहे इत्यादि भारतीय अर्थशास्त्र से जुड़े रहते थे, पर इस चाइनीज सामान ने सब चौपट कर दिया है. ऐसी परिस्थिति में अगर हम यह कह कर अपना पल्ला छुड़ाना चाहें कि यह सब जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही है, तो यह अपनी जिम्मेदारी से भागने जैसा ही होगा! चूंकि वैश्वीकरण के सन्दर्भ में तमाम पेंच ऐसे हैं कि सरकारें उलझ ही जाती हैं और ऐसे समय परीक्षा होती है हमारी राष्ट्रीय भावना की. यूं भी सरकारें जन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने में कहीं ज्यादा भरोसा करती हैं. इस सन्दर्भ में एक कहानी मैंने सुनी थी, जिसका सन्दर्भ शायद जापान से था (शायद कोई और भी देश हो). इसके अनुसार उस समय परमाणु बम गिराने के बाद जापान में अमेरिका विरोधी भावनाएं तेजी से उबाल मार रही थीं, किन्तु कुछ समय बाद जापान सरकार को अमेरिका से व्यापारिक समझौता करना पड़ा. तब के समय अमेरिका से जापान में खूब सारे सेब (एप्पल) भेजे गए, जो बाज़ारों में सज भी गए. अमेरिका से आये सेब बेहद खूबसूरत और सस्ते भी थे, किन्तु तब बिना किसी शोर या विरोध के जापानियों में यह भावना उभर आयी थी कि अमेरिकन सामान नहीं खरीदना है और जो कहानी मैंने सुनी है, उसके अनुसार सेब पर हुआ पूरा समझौता अमेरिका को वापस लेना पड़ा था. Chinese goods, Indian goods, Hindi Article, New, Diwali Festival, Enemy Country, Be clear, Public, Industrialists and Indian Government Policies

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बाद में किसी जापानी से जब किसी पत्रकार ने पूछा कि अमेरिकन्स ने आप के देश के ऊपर एटम बम गिराया और आप लोगों ने बदला नहीं लिया? उन जापानी महोदय का सीधा जवाब था कि ‘हमने बदला ले लिया है.’ सवाल आया कैसे? क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और जापान में कोई युद्ध तो हुआ नहीं! जापानी महोदय ने फिर जवाब दिया कि आज अमेरिकन राष्ट्रपति जिस पैनासोनिक कंपनी का फोन इस्तेमाल करते हैं वह जापान में बना हुआ है, जिस सोनी टेलीविज़न पर वह देश दुनिया की खबरें देखते हैं वह भी जापान में ही बना हुआ है. यह कहानी मैंने काफी पहले सुनी थी और शायद इसमें कुछ शब्दों की गलतियां भी हों, किन्तु सन्देश बेहद साफ़ है कि वजह आपको समझनी होगी और जिम्मेदारी आपको उठानी होगी. चीन की समस्या भी काफी कुछ इस कहानी से मिलती है. इस बात से शायद ही कोई आशावादी इंकार करे कि अगर कोई भारत का असल दुश्मन है तो वह चीन ही है अथवा फिर कोई देश हमारा दुश्मन नहीं है, पाकिस्तान भी नहीं! इस बात के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि चीन अब ऐसे मुद्दों पर भी भारत का विरोध कर रहा है, जिस पर पूरी दुनिया भारत के साथ दिखती है. न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (NSG) और अजहर मसूद को यूएन द्वारा आतंकी घोषित करने की राह में अड़ंगा लगाने वाले चीन ने अब ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी बड़ी इकॉनमी के संगठन ब्रिक्स (BRICS) में भी आतंकवाद के मुद्दे पर दोहरा मानदंड अपनाया है. मुम्बई, पठानकोट और अब उरी अटैक जैसे आतंकी हमलों में सभी सबूत पाकिस्तान के खिलाफ मिलने के बावजूद चीन बेहद मासूमियत से कह बैठा कि कोई देश या धर्म आतंक के लिए जिम्मेदार नहीं है. चीन का तर्क अगर माना जाए तो ओसामा बिन लादेन, तालिबान के मुल्ला उमर, यूएन द्वारा घोषित आतंकी हाफीज़ सईद, भारत में अपराध करके पाकिस्तान में छुपे दाऊद इब्राहिम जैसे अपराधी आतंक फैलाने अंतरिक्ष से आते हैं और फिर विस्फोट करते हैं, निर्दोष नागरिकों की जान लेते हैं और फिर अपनी उड़न तस्तरी में बैठ कर अंतरिक्ष में लौट जाते हैं? Chinese goods, Indian goods, Hindi Article, New, Diwali Festival, Enemy Country, Be clear, Public, Industrialists and Indian Government Policies

क्या बेवकूफाना तर्क है, किन्तु मजबूरी यह है कि अपने इस मजबूत पडोसी से भारत सीधे लड़ना नहीं चाहता, जो उचित ही है. अब सवाल उठता है कि ऐसे में हम क्या करें, एक नागरिक के तौर पर और एक संगठन के तौर पर भी? परमाणु शक्ति संपन्न दुनिया में जाहिर तौर पर लड़ाई अब आर्थिक हो चुकी है और उसमें भी सरकारों का रोल सीमित ही रह गया है. मुक्त व्यापार के कांसेप्ट के तहत हर देश के बाज़ार में दूसरे देशों का सामान भरा हुआ है और सरकारें इसमें कुछ खास कर नहीं सकती हैं. साफ़ है कि जनता का रोल यहाँ महत्वपूर्ण हो गया है और ऊपर बतायी गयी कहानी के अनुसार, उसे पहले यह समझना पड़ेगा कि चीन हमें ही सामान बेचकर पैसा बना रहा है और उस पैसे को पाकिस्तान में दे रहा है, जो घूम फिरकर भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है. मामला समझने के बाद हमें चीन के सामानों का न केवल सामूहिक विरोध करना है, बल्कि उसका विकल्प भी तैयार करना है. आज हमारी 80 फीसदी मार्केट्स में, लगभग हर क्षेत्र के बाज़ारों में चीन अपनी घुसपैठ कर चुका है और न केवल घुसपैठ कर चुका है, बल्कि कई जगहों पर वह अपनी मोनोपोली तक बना चुका है. जाहिर है कि एक दिन में या एक दिवाली सीजन में हम कुछ ख़ास नहीं कर सकते हैं, किन्तु अगर राष्ट्रवादी की भावना जागरूक होनी शुरू हुई तो कितनी जल्द यह सोशल मीडिया से उद्योग जगत और उद्यमियों तक पहुंचेगी, यह समझना इतना मुश्किल भी नहीं होना चाहिए. गोवा में हुए ब्रिक्स सम्मलेन में यह साफ़ हो गया कि इन बड़े देशों में भारत की अर्थव्यवस्था ही सबसे तेज रफ़्तार से आगे बढ़ रही है और ऐसे में उद्योगपतियों को भी राष्ट्रीय भावना से भरकर चीनी सामानों का बेहतर विकल्प तैयार करना होगा, कम दामों में! ठीक उन जापानियों की तरह, जिनके बनाये उपकरण अमेरिकन राष्ट्रपति तक इस्तेमाल करने को मजबूर हैं. Chinese goods, Indian goods, Hindi Article, New, Diwali Festival, Enemy Country, Be clear, Public, Industrialists and Indian Government Policies

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इस दिवाली पर राष्ट्रवाद की भावना के तहत सोशल मीडिया पर जो अभियान चला है, वह जागरूकता के लिहाज से उचित है, किन्तु मामला यहीं तक टांय टांय फिस्स न हो जाए, इस बाबत तमाम बुद्धिजीवियों, उद्योगपतियों और सरकार को भी कहीं न कहीं गौर करना ही होगा. हालाँकि, मेक इन इंडिया जैसे प्रोग्राम सरकार ने चलाये हैं, जिसका असर भी दिखने लगा है, पर बड़े निर्माणों के साथ दिवाली जैसे हमारे त्यौहारों पर भी झालर, दीपक, पटाखे इत्यादि भारत-निर्मित सामान बाज़ार में आएं, यह बात भी बेहद आवश्यक बनती जा रही है. खासकर इस सन्दर्भ में अगर ग्रामीण परिवेश के कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की रणनीति बने तो बहुत उम्मीद है कि गरीबी रेखा से नीचे जीने वाली लगभग 22 फीसदी जनता (2012 का आंकड़ा) थोड़ी बेहतर ज़िन्दगी जी सके. इस बार चीनी सामानों के विरोध से (जो आतंकी देश पाकिस्तान का चीन द्वारा पक्ष लेने से उभरी) कुछ थोक और फुटकर व्यापारियों को नुकसान जरूर होगा, किन्तु क्या देशभक्ति की भावना समय और तिथि निश्चित करके उत्पन्न होती है? पर इन व्यापारियों से भी अधिक उम्मीद की जानी चाहिए हमारे देश के बड़े उद्योगपतियों से! एक वरिष्ठ मुझसे कल पूछ रहे थे कि ‘तुमने रिलायंस की जिओ सिम ले ली’? मैंने कहा कि अभी कुछ दिन इसकी परफॉरमेंस देखने के बाद लूँगा और आपने? मेरे प्रश्न पर उनका जवाब था कि मेरे पास 4जी का फोन नहीं है और उसका जो फोन साथ में आ रहा है, जो चीन से बना है, इसलिए उस कंपनी का फोन लूँगा पहले, जो चीन में नहीं बना है, फिर जिओ का सिम लूँगा! मेरे मन में हास्य उत्पन्न हुआ कि तब तो  … !!!

इस क्रम में सरकार भी बेहद सतर्कता से सिर्फ उन्हीं प्रोजेक्ट्स में चीन का साथ ले, जहाँ यह अपरिहार्य हो न कि इन्वेस्टमेंट के नाम पर कुछ भी! सरकार की मजबूरी समझी जा सकती है, किन्तु देशभक्ति में उसका भी तो कुछ हिस्सा बनता है न, कि नहीं? Chinese goods, Indian goods, Hindi Article, New, Diwali Festival, Enemy Country, Be clear, Public, Industrialists and Indian Government Policies

मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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